Tuesday, December 9, 2008

पत्रकार से सेल्समैन

ब्लॉग की दुनिया में चार महीने बाद लौट रहा हूं। बीते चार महीनों में मैंने अपने लिये कुछ नहीं लिखा। सिर्फ नौकरी की, लेकिन अब नौकरी से मुक्त हो चुका हूं और वो हर काम कर रहा हूं जिसके लिए मन तरसता था। सुबह देर तक सोता हूं। अख़बार पढ़ता हूं। किताबें पढ़ता हूं। बच्चे के साथ खेलता हूं। गाना सुनता हूं। रात देर तक टीवी देखता हूं। अपने दोस्त गिरिजेश के पास से २९ बेहतरीन फिल्मों की डीवीडी ले आया हूं और हर रोज रात ग्यारह बजे के बाद एक फिल्म देखता हूं।
(शेष यहां पढ़ें ... ।blogspot.com/2008/12/blog-post.html">http://chaukhamba.blogspot.com/2008/12/blog-post.html )

Thursday, August 7, 2008

मैं सुनना चाहता हूं ख़ामोश आवाज़ों को

मैं सुनना चाहता हूं शहर के शोर में दबी,
दम तोड़ती, सिसकती, ख़ामोश आवाज़ों को
मुस्कुराते चेहरे के पीछे छिपे दर्द को
चमकती आंखों में क़ैद उदास नज़रों को
भीड़ में अकेला महसूस करती धड़कन को
भंवरों को देख मचलते फूल की पंखुड़ियों से निकलती धुनों को
चांदनी के स्पर्श से आनंदित लहरों की अटखेलियों को
सूरज की किरणों से पिघलते हिमालय की टूटन को
समंदर से उठते तूफ़ान की ललकार को

मैं सुनना चाहता हूं, ख़ामोश आवाज़ों को
क्योंकि जानता हूं ख़ामोशी बहुत कुछ कहती है
एक धारा प्रवाह बोलने वाले वक्ता से ज़्यादा
हर पल बजने वाले वाद्य यंत्र से भी कहीं ज़्यादा
ख़ामोशी बोलती है, बतियाती है
उसे महसूस करने के लिए
कान और दिमाग़ की ज़रूरत नहीं
ख़ामोशी उठती है सीधे दिल की गहराइयों से
और उतरती है दिल की गहराइयों में, चुपचाप.

मैं सुन सकता हूं ...
कलकल करती नदी की उदास बूंदों को
जो दिल में बादलों से बिछुड़ने का दर्द समेटे
पार करते जाते हैं पर्वत, जंगल, शहर
और मिल जाते हैं समंदर में, हो जाते हैं विलीन

मैं सुन सकता हूं ...
बाहर से ख़ामोश समंदर के भीतर मचे शोर को
कल ही एक जवान व्हेल मां के लिए रोई थी
एक सील शिकारी सार्क से बचने के लिए
चीखी चिल्लाई, मगर बच ना सकी
उसके ख़ूनी जबड़ों से
और आज एक नन्हा समुद्री घोड़ा
ऑक्टोपस को चकमा देने पर ठहाके लगा रहा है
कह रहा है तुम बड़े हो, ख़तरनाक हो तो क्या
मेरा दिमाग़ तुमसे ज़्यादा तेज़ है

मैं सुन सकता हूं...
साइबेरियाई परिंदों के झुंड में ख़ामोश परिंदे को,
उसे इस वक़्त याद सता रही है
अपनी मिट्टी, अपने वतन की
उन पेड़ पौधों की जिन पर उसने घोंसला बनाया
अंडे दिये, फिर उन अंडों से चूजे निकले
उन चूजों को उड़ना सीखाया
मगर सर्दियों में सबसे अहम उड़ान में
वो चूजे थक गए, बीच राह में बैठ गए
शिकार बन गए बहेलियों की साज़िश का
मैं सुन रहा हूं उस परिंदे की रुदन

मैं सुन सकता हूं...
शोर में डूबे कनॉट प्लेस के कोने में
ख़ामोश बैठी बूढ़ी महिला की सदा को
जो सामने कटोरा रख एकटक फुटपाथ देखती रहती है
आने-जाने वाले उसकी तरफ सिक्के उछालते हैं
मगर उसके होंठ दुआ में हिलते नहीं,
हथेलियां आशीर्वाद में उठती नहीं,
आंखें कोई हरकत नहीं करती,
उसकी ये ख़ामोशी चीख-चीख कहती है
दुआओं से, आशीर्वाद से और संवेदनाओं से
ज़िंदगी की खुरदुरी ज़मीन मखमली नहीं होती
अगर होती तो उसके जिगर के टुकड़े
उसे बुढ़ापे में बेघर-बेसहारा नहीं करते,
यहां तो खुशियां उन्हीं के हिस्से हैं
जो धुर्त, मक्कार, लिजलिजे, लचीले और क्रूर हैं
कुछ-कुछ जोंक की तरह

मैं सुनना चाहता हूं ख़ामोश आवाज़ों को
क्योंकि मैं जानता हूं और महसूस करता हूं
ख़ामोशी बोलती है, बतियाती है
जब भी मेरा दिल बहुत दुखता है
जब भी मैं खुद को लाचार महसूस करता हूं
और जब भी मुझे बहुत क्रोध आता है
मैं ख़ामोश हो जाता हूं,
तब मेरी ख़ामोशी मुझसे बतियाती है
बोलने वाली किसी भी रचना से कहीं ज़्यादा

Monday, July 7, 2008

मरीज पस्त, अंबुमणि मस्त

मेरे पड़ोस में एक सरकारी अधिकारी रहते हैं. कल शाम उनके बच्चे की तबीयत खराब हो गई. पेट में बहुत तेज दर्द हो रहा था. बच्चा कुछ भी खाता तो उल्टी कर देता. इमरजेंसी में सात साल के बच्चे को वो गंगाराम अस्पताल ले गए. प्राथमिक इलाज के बाद रात एक बजे वहां तैनात डॉक्टर ने बच्चे को किसी दूसरे अस्पताल ले जाने को कहा. पूछने पर डॉक्टर ने बताया कि बच्चे की हालत ख़राब है और उसे भर्ती कराना होगा, लेकिन गंगाराम अस्पताल में जगह नहीं है. काफी देर तक वो मिन्नतें करते रहे, लेकिन डॉक्टरों ने अपनी लाचारी जता दी. जिसके बाद वो रात दो बजे केंद्रीय दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल आरएमएल में पहुंचे. वहां भी डॉक्टरों ने आनाकानी की. लेकिन बच्चे की हालत देख वो इनकार नहीं कर सके. उन्होंने उसे भर्ती कर लिया.

डॉक्टर राम मनोहर लोहिया अस्पताल दिल्ली के वीआईपी इलाके में है. संसद भवन और कनॉट प्लेस के ठीक बगल में. यहां पहुंचने पर बच्चे के पिता को लगा कि सब ठीक हो जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं था. रात दो बजे से लेकर शाम पांच बजे तक बच्चे के कई टेस्ट हुए. खून की जांच के साथ एक्स रे और अल्ट्रासाउंड भी हुआ. रिपोर्ट देखने के बाद डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिये. उन्होंने कहा कि बच्चे को इंटेस्टाइनल रपचर (intestinal rupture) है. उसका तुरंत ऑपरेशन करना होगा और इसके लिए वो या तो कलावती अस्पताल ले जाएं या फिर गंगाराम. ये सुन कर बच्चे के पिता के होश उड़ गए. उन्होंने कहा कि आरएमएल में इलाज नहीं होगा तो फिर कलावती और गंगाराम में इलाज की क्या गारंटी हैं? तब डॉक्टरों ने बताया कि केंद्र सरकार के चंद सबसे बड़े अस्पतालों में से एक डॉक्टर राम मनोहर लोहिया अस्पताल में एक भी पेडियाट्रिक्स सर्जन नहीं है. ये सुन हम सब हैरान रह गए. अगर वीआईपी इलाके में मौजूद आरएमएल का ये हाल है तो इससे स्वास्थ्य सेवा की बदहाली का अंदाजा लगाया जा सकता है. लेकिन स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदॉस को उससे क्या? मरीज पस्त हैं और मंत्री जी अपनी राजनीति में मस्त हैं.

मजबूरी में एक बार फिर बच्चे को गंगाराम अस्पताल ले जाना पड़ा. संपर्क निकाला गया और डॉक्टरों से बात की गई और आखिर में बच्चे को आईसीयू में भर्ती कर लिया गया है. अब उसके घरवालों के साथ हम सबकी यही दुआ है कि ऑपरेशन के बाद वो फिर से पहले की तरह उछल-कूद मचाने लगे. शरारतें करने लगे.

Saturday, June 28, 2008

ये सेहत की दुकान है

मैंने आस्था का सफ़र में ऑर्थोनोवा अस्पताल का जिक्र किया था। आईआईटी दिल्ली के ठीक सामने सफ़दरजंग डेवलपमेंट एरिया में ये अस्पताल चल रहा है। वहां गुरुवार, पांच जून को मैं विप्लव भाई और उनके पिता जी के साथ पहुंचा। यही कोई ग्यारह बजे के करीब। अस्पताल में दाखिल होने पर भीड़ ने स्वागत किया। दस बाई दस के बरामदे में एक खंबे के चारों तरफ बैग रखे हुए थे। टाई लगाए ३०-३५ मेडिकल रिप्रजेंटेटिव (एमआर) वहां मौजूद थे। उस बरामदे में पांच कमरों के दरवाजे खुलते हैं। हर दरवाजे पर तीन-चार एमआर घेरा डाले हुए थे। बरामदे में करीब दस कुर्सियां लगी हुईं थी। मरीज और उनके अटेंडेंट के बैठने के लिए। लेकिन ऑर्थोनोवा अस्पताल की उन कुर्सियों में ज्यादातर पर उन्हीं टाई लगाए हुए लोगों का कब्जा था। मरीज कम और मरीजों की जेब ढीली करने के लिए माल बेचने वालों की संख्या ज्यादा। ये नज़ारा देख कर हम सभी हैरान रह गए, लेकिन डॉक्टर ने यहीं बुलाया था इसलिए ना चाहते हुए भी हम लोग उसी भीड़ में शामिल हो गए। विप्लव भाई के हाथ में चोट देख एक शख्स ने कुर्सी खाली कर दी। लेकिन उनके बुजुर्ग बाबूजी को काफी देर तक खड़ा रहना पड़ा। ऑर्थोनोवा अस्पताल में उस दिन कड़वे अनुभवों की ये शुरुआत थी और अभी कई झटके लगने बाकी थे।

अस्पताल पहुंचने से पहले सुबह नौ बजे हमने फोन पर बात की थी। तब रिसेप्शन पर तैनात शख़्स ने बताया कि विप्लव जी के लिए कमरा नंबर १०१ तैयार है। वो जब चाहें आ कर अस्पताल में भर्ती हो सकते हैं। लेकिन वहां पहुंचने पर कमरा देने की जगह इंतजार करने को कहा गया। करीब एक घंटे बाद अस्पताल के एक कर्मचारी ने आकर साथ चलने को कहा। उसके साथ हम लिफ्ट में दाखिल हुए। थोड़ी देर में हम अस्पताल की तीसरी मंजिल पर थे। वहां वो कर्मचारी हमें रिकवरी रूम में ले गया, जहां दो बिस्तर लगे हुए थे। एक बिस्तर पर एक मरीज दर्द से कराह रहा था। कर्मचारी ने बताया कि खाली पड़ा दूसरा बिस्तर विप्लव जी के नाम है। हमने उससे कहा कि शायद उसे कोई गलतफहमी हो गई है विप्लव जी के लिए कमरा नंबर १०१ एलॉट हुआ है। कर्मचारी ने रजिस्टर खोल कर दिखा दिया कि नहीं रिकवरी रूम में बेड नंबर दो उनके नाम पर है और उस कमरे में उनके साथ कोई दूसरा दाखिल नहीं हो सकता।

हमने उसकी बात पर अमल से इनकार कर दिया और फिर रिसेप्शन पर चले आए। वहां पहुंच कर हमने कहा कि चार दिन पहले जब बुकिंग सिंगल रूम की कराई गई तो अब हमें रिकवरी रूम में क्यों भेजा जा रहा है? कर्मचारी बात टालने में लगे थे। शायद कोई मोटी आसामी मिल गई थी। गुस्से में हमने हेल्थ इंश्योरेंस क्लेम करने की प्रक्रिया रोकने को कहा। और वहीं अपने डॉक्टर का इंतज़ार करने लगे। अब सवा बाहर बज रहा था और एक स्ट्रेचर पर मरीज को बरामदे में लाया गया। उसके पैर में गंभीर चोट लगी हुई थी और देखने से ही लग रहा था कि उसे डॉक्टरी मदद की सख्त जरूरत है। लेकिन जिस डॉक्टर से उसका अप्वाइंटमेंट था उसके कमरे के बाहर बारह टाईवालों की लंबी लाइन लग चुकी थी। सब के सब भारी बैग हाथ में लिये हुए थे। अब मरीज के पास इंतजार के अलावा कोई और चारा नहीं था। तभी एक और एमआर वहां पहुंचा। उसने दरवाजे के बाहर खड़े कंपाउंडर से कहा दो-तीन के लॉट में डॉक्टर से मिलने दिया जाए, वर्ना इस तरह तो शाम हो जाएगी. एक के बाद एक एमआर भीतर जाते गए और मरीज बाहर इंतजार करता रहा.

सेहत के बाज़ार का ये घिनौना चेहरा देखकर बाबूजी कांप उठे. उन्होंने कहा कि चाहे कुछ भी हो अब यहां ऑपरेशन नहीं कराएंगे.

Sunday, June 22, 2008

तन सूखा मगर मन भीगा


ये बरसात भी यूं ही निकल जाएगी। इस बरसात भी गांव जाना नहीं हो सकेगा। मन तो काफी चाहता है लेकिन गांव जाने की भूमिका तैयार नहीं हो रही। मतलब इस बरसात भी मैं झिझरी नहीं खेल सकूंगा। गांव से सटी मगई नदी के किनारे नहीं बैठ सकूंगा। बारिश में कुछ चिकनी और मुलायम हुई परती की रेत पर चीका नहीं खेल सकूंगा। वो रेत जो कूदने पर भुरभुरा जाती, बिखर जाती मगर हमें चोट नहीं लगने देती। ये बरसात भी बीते कई साल की तरह यादों के सहारे काटनी होंगी। रोजी रोटी के नाम पर इस बरसात को भी खर्च करना होगा।

मुझे याद है कि बरसात में मगई नदी में उल्टी धारा बहने लगती थी। ये नदी एक छोर पर गंगा में जाकर मिल जाती थी। लेकिन जब गंगा में पानी कुछ ज्यादा उफान मारने लगता था तो मगई में धारा पलट जाती। फिर पानी हमारे गांव को चारों ओर से घेर लेता। कोई पंद्रह-बीस फुट ऊंचाई पर बसे गांव के चारों तरफ आधे किलोमीटर दूर तक पानी ही पानी दिखाई देता। परती के बाद बगीचे भी पानी में डूब जाते... लगता कि आम, सेमर, सिरफल, कटहल, बरगद, पाकड़ और पीपल सभी पानी पर उगे हों। उन्हीं पेड़ों के बीच मछलियां अपनी खुराक तलाशती और मछलियों के तौर पर इंसान अपनी खुराक। हम लोग भी बंटी (मछली पकड़ने का कांटा) लेकर अपने दुआर के छोर से मछली पकड़ने लगते। घंटों केचुआं कांटे में डाल कर बैठे रहते। किस्मत के हिसाब से रोहू, मांगुर, नैनी, कतला, झींगा ... उन काटों में फंस जातीं। प्रकृति बाढ़ के तौर पर अपनी ताकत के इजहार के साथ ज़िंदगी की नई धारा की रचना भी कर जाती थी। हम सभी उस जीवन धारा का भी लुत्फ उठाते। उससे जुड़ी मुश्किलों से दो-दो हाथ करते हुए।

गंगा का पानी हमें करीब एक से डेढ़ महीने तक इसी तरह घेरे रहता था। पानी घटने के इंतजार में हाथ पर हाथ धर कर बैठा तो रहा नहीं जा सकता। इसलिए लोगों ने बाढ़ के साथ कई तरह के एड्जस्टमेंट किये थे। खुद को पूरी तरह ढाल लिया था। हंसने खेलने के कई नए तरीके ईजाद किये थे। वैसे तो ये तरीके सदियों पुराने थे, लेकिन उनमें वक्त के साथ बदलाव भी हुआ था। ऐसा ही एक खेल था झिझरी। झिझरी की याद आते ही मैं रोमांचित हो उठता हूं। वो खेल ही कुछ ऐसा है, मानों एक बड़े क्रूज पर सवार होकर समंदर के बीच उतरना। क्रूज की ऊंची छत पर सवार होकर आसमान में तारे गिनने जैसा।

आमतौर पर झिझरी अंजोरिया रात में खेलते हैं। ज़्यादातर लोग अंजोरिया रात नहीं समझ सकेंगे। इसे हिंदी में पूर्णिमा और अंग्रेजी में फुल मून नाइट कहते हैं। तब चांद अपने पूरे शबाब पर होता है। अंजोरिया रात में बाढ़ के पानी में चांद कुछ इस तरह अपनी रोशनी घोल देता मानो वो भी आसमान से उतरकर नदी जल से अठखेलियां करना चाहता हो और ये चाहता हो कि संसार उसकी खूबसूरती को पानी में निहार ले। ऐसे की नज़रें ठहर जाती हैं। उसी अंजोरिया रात में नाव पर चौकी रख दी जाती। टॉर्च, लालटेन, ढोल, मझीरे लेकर लोग सवार हो जाते। भगवान राम से प्रार्थना करते हुए, अपनी सलामती की दुआ मांगते हुए।

सिकिया चीरय चिरी
नैया सीरी जवलों
राम सागरवा बांध ना
कवना घाट उतरे हो परदेसिया
राम सागरवा बांध ना

((भगवान इस नाव की हिफाजत करना। लकड़ी को चीर चीर कर बनाई गई ये नाव सागर में चली जा रही है। इस पर सवार परदेसी को किसी घाट पर उतरना है))

...... सुरों में ही इसका जवाब भी दिया जाता

सिकिया चीरय चिरी
नैया सीरी जवलों
राम सागरवा बांध ना
राम घाट उतरे हो परदेसिया
राम सागरवा बांध ना
((भगवान इस नाव की हिफाजत करना। लकड़ी को चीर चीर कर बनाई गई ये नाव सागर में चली जा रही है। इस पर सवार परदेसी राम घाट पर उतरेगा।))

हो सकता हो कि सुरों से सजे उस सवाल जवाब का मतलब मैं ठीक से नहीं समझा सका हूं। लेकिन उसी प्रार्थना के साथ लोग नाव को लहरों में ढकेल देते और जश्न शुरू हो जाता। बीच धारा में ले जाकर नाविक लंगर डालते और नाव लहरों पर झूलने लगती ... ढोल, मझीरे से निकले सुर लहरों में घुलने लगते ... रामायण की चौपाइयां गायी जाने लगती... बीच बीच में जोरदार आवाज़ होती... बोलो सियापति रामचंद्र जी की जै ... एक नई तरंग पैदा होती जो नाव पर होते हुए भी सबको भीगो कर चली जाती ... तन सूखा मगर मन प्रेम और भक्ति रस में डूबा हुआ। हर कोने में चौकी पर नाचते-झूमते लोग और अलग-अलग सुर ... वो संगीत और नाच आज भी जेहन में ताजा है। उसके बारे में लिखते हुए चेहरे पर मुस्कान खिल आई है। मैं अपने बचपन में लौट चुका हूं और कुछ पल के लिए ही सही, उसे जीना चाहता हूं।

तारीख - २२ जून, २००८

दिन - रविवार, वक़्त - १६.१०, जगह - दिल्ली

Saturday, June 21, 2008

मुझसे नई तकदीर ले जाइये

हुजूर, मेहरबान, कदरदान!
मैं शब्दों का कारोबारी हूं,
मेरे पास हर तरह के शब्द हैं.
पैसे दीजिये,
जरूरत के शब्द ले जाइये.
अगर आपने किसी का क़त्ल किया है,
मगर क़ातिल कहलाने से बचना चाहते हैं,
तो मेरे पास आइये,
मैं क़त्ल को हादसा बता दूंगा.
यकीन मानिये,
शब्दों में बड़ी ताकत होती है,
सारा खेल शब्दों का है,
शब्दों से ही दुनिया चलती है.
मेरी और आपकी बिसात क्या,
शब्द बदलने पर देशों की तकदीर बदल जाती है.
मैं उन्हीं शब्दों को कारोबार करता हूं,
झूठ को सच बनाने के फन में माहिर हूं.
बस आप पैसे फेंकिये,
मुझसे अपनी जरूरत के शब्द,
और अपनी नई तकदीर ले जाइये।

Tuesday, June 17, 2008

शब्द धोखा दे गए

आज काफी कुछ लिखने का मन कर रहा था। कई मुद्दे जेहन में थे।

पहला मुद्दा - गीत भाई के ब्लॉग पर एक दिन पहले दुन्या की कविता “कल मैंने एक देश खो दिया” पढ़ी। लगा ये हक़ीक़त मेरी भी है। अपना देस तो मैं भी खो चुका हूं। पूरा नहीं, मगर आधा जरूर। दुन्या के दर्द के दामन को थाम कर बहुत कुछ लिखने का मन कर रहा हैं, लेकिन काफी मशक्कत के बाद भी विचारों को एक धागे में पिरो नहीं सका।

दूसरा मुद्दा - सीबीआई के निदेशक विजय शंकर की मीडिया को हद में रहने की हिदायत। एक ऐसी जांच एजेंसी का मुखिया अब मीडिया को नसीहत दे रहा था जो आज तक अपराधियों को बचाने का काम करती आई है। उसकी इतनी हिम्मत हुई तो इसके लिए कुछ हद तक हम भी जिम्मेदार हैं। मुद्दा काफी बड़ा है और इस पर लिखने को काफी कुछ है, लेकिन कुछ ठोस लिख नहीं सका।

तीसरा मुद्दा - दिल्ली और मुंबई में दो बड़े हादसे हुए। एक झटके में कई ज़िंदगियां, कई परिवार तबाह हो गए और दोनों ही हादसों के लिए शराब जिम्मेदार है। शराब जिसके दंश को मैंने डेढ़ दशक तक भोगा और शराब छोड़ने के बाद भी उसी दंश को भोग रहा हूं। मुद्दा गंभीर है। लिखने का भी काफी मन था। लेकिन लिख नहीं सका।

ऐसा अक्सर होता है। दफ्तर में खबरों के बोझ तले दबे होने के बाद भी जो शब्द साथ नहीं छोड़ते, वही शब्द मन की बात लिखते वक्त रिश्ता तोड़ लेते हैं। परायों सा बर्ताव करने लगते हैं। इस कदर कि दिल कुछ सोचता है, दिमाग कुछ और अंगुलियां कुछ लिखती हैं। आज भी ऐसा ही हुआ। मैं कुछ सार्थक लिखना चाहता था, लेकिन शब्दों ने धोखा दे दिया। आखिर में कुछ मन लायक नहीं लिख सकने के अहसास के साथ कंप्यूटर बंद कर रहा हूं।

तारीख – १७ जून, २००८ (मंगलवार)
वक़्त – २.१०
जगह - दिल्ली