मैंने आस्था का सफ़र में ऑर्थोनोवा अस्पताल का जिक्र किया था। आईआईटी दिल्ली के ठीक सामने सफ़दरजंग डेवलपमेंट एरिया में ये अस्पताल चल रहा है। वहां गुरुवार, पांच जून को मैं विप्लव भाई और उनके पिता जी के साथ पहुंचा। यही कोई ग्यारह बजे के करीब। अस्पताल में दाखिल होने पर भीड़ ने स्वागत किया। दस बाई दस के बरामदे में एक खंबे के चारों तरफ बैग रखे हुए थे। टाई लगाए ३०-३५ मेडिकल रिप्रजेंटेटिव (एमआर) वहां मौजूद थे। उस बरामदे में पांच कमरों के दरवाजे खुलते हैं। हर दरवाजे पर तीन-चार एमआर घेरा डाले हुए थे। बरामदे में करीब दस कुर्सियां लगी हुईं थी। मरीज और उनके अटेंडेंट के बैठने के लिए। लेकिन ऑर्थोनोवा अस्पताल की उन कुर्सियों में ज्यादातर पर उन्हीं टाई लगाए हुए लोगों का कब्जा था। मरीज कम और मरीजों की जेब ढीली करने के लिए माल बेचने वालों की संख्या ज्यादा। ये नज़ारा देख कर हम सभी हैरान रह गए, लेकिन डॉक्टर ने यहीं बुलाया था इसलिए ना चाहते हुए भी हम लोग उसी भीड़ में शामिल हो गए। विप्लव भाई के हाथ में चोट देख एक शख्स ने कुर्सी खाली कर दी। लेकिन उनके बुजुर्ग बाबूजी को काफी देर तक खड़ा रहना पड़ा। ऑर्थोनोवा अस्पताल में उस दिन कड़वे अनुभवों की ये शुरुआत थी और अभी कई झटके लगने बाकी थे।
अस्पताल पहुंचने से पहले सुबह नौ बजे हमने फोन पर बात की थी। तब रिसेप्शन पर तैनात शख़्स ने बताया कि विप्लव जी के लिए कमरा नंबर १०१ तैयार है। वो जब चाहें आ कर अस्पताल में भर्ती हो सकते हैं। लेकिन वहां पहुंचने पर कमरा देने की जगह इंतजार करने को कहा गया। करीब एक घंटे बाद अस्पताल के एक कर्मचारी ने आकर साथ चलने को कहा। उसके साथ हम लिफ्ट में दाखिल हुए। थोड़ी देर में हम अस्पताल की तीसरी मंजिल पर थे। वहां वो कर्मचारी हमें रिकवरी रूम में ले गया, जहां दो बिस्तर लगे हुए थे। एक बिस्तर पर एक मरीज दर्द से कराह रहा था। कर्मचारी ने बताया कि खाली पड़ा दूसरा बिस्तर विप्लव जी के नाम है। हमने उससे कहा कि शायद उसे कोई गलतफहमी हो गई है विप्लव जी के लिए कमरा नंबर १०१ एलॉट हुआ है। कर्मचारी ने रजिस्टर खोल कर दिखा दिया कि नहीं रिकवरी रूम में बेड नंबर दो उनके नाम पर है और उस कमरे में उनके साथ कोई दूसरा दाखिल नहीं हो सकता।
हमने उसकी बात पर अमल से इनकार कर दिया और फिर रिसेप्शन पर चले आए। वहां पहुंच कर हमने कहा कि चार दिन पहले जब बुकिंग सिंगल रूम की कराई गई तो अब हमें रिकवरी रूम में क्यों भेजा जा रहा है? कर्मचारी बात टालने में लगे थे। शायद कोई मोटी आसामी मिल गई थी। गुस्से में हमने हेल्थ इंश्योरेंस क्लेम करने की प्रक्रिया रोकने को कहा। और वहीं अपने डॉक्टर का इंतज़ार करने लगे। अब सवा बाहर बज रहा था और एक स्ट्रेचर पर मरीज को बरामदे में लाया गया। उसके पैर में गंभीर चोट लगी हुई थी और देखने से ही लग रहा था कि उसे डॉक्टरी मदद की सख्त जरूरत है। लेकिन जिस डॉक्टर से उसका अप्वाइंटमेंट था उसके कमरे के बाहर बारह टाईवालों की लंबी लाइन लग चुकी थी। सब के सब भारी बैग हाथ में लिये हुए थे। अब मरीज के पास इंतजार के अलावा कोई और चारा नहीं था। तभी एक और एमआर वहां पहुंचा। उसने दरवाजे के बाहर खड़े कंपाउंडर से कहा दो-तीन के लॉट में डॉक्टर से मिलने दिया जाए, वर्ना इस तरह तो शाम हो जाएगी. एक के बाद एक एमआर भीतर जाते गए और मरीज बाहर इंतजार करता रहा.
सेहत के बाज़ार का ये घिनौना चेहरा देखकर बाबूजी कांप उठे. उन्होंने कहा कि चाहे कुछ भी हो अब यहां ऑपरेशन नहीं कराएंगे.
Saturday, June 28, 2008
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1 comment:
भाई, यही है जिन्दगी !
घुघूती बासूती
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