मैं सुनना चाहता हूं शहर के शोर में दबी,
दम तोड़ती, सिसकती, ख़ामोश आवाज़ों को
मुस्कुराते चेहरे के पीछे छिपे दर्द को
चमकती आंखों में क़ैद उदास नज़रों को
भीड़ में अकेला महसूस करती धड़कन को
भंवरों को देख मचलते फूल की पंखुड़ियों से निकलती धुनों को
चांदनी के स्पर्श से आनंदित लहरों की अटखेलियों को
सूरज की किरणों से पिघलते हिमालय की टूटन को
समंदर से उठते तूफ़ान की ललकार को
मैं सुनना चाहता हूं, ख़ामोश आवाज़ों को
क्योंकि जानता हूं ख़ामोशी बहुत कुछ कहती है
एक धारा प्रवाह बोलने वाले वक्ता से ज़्यादा
हर पल बजने वाले वाद्य यंत्र से भी कहीं ज़्यादा
ख़ामोशी बोलती है, बतियाती है
उसे महसूस करने के लिए
कान और दिमाग़ की ज़रूरत नहीं
ख़ामोशी उठती है सीधे दिल की गहराइयों से
और उतरती है दिल की गहराइयों में, चुपचाप.
मैं सुन सकता हूं ...
कलकल करती नदी की उदास बूंदों को
जो दिल में बादलों से बिछुड़ने का दर्द समेटे
पार करते जाते हैं पर्वत, जंगल, शहर
और मिल जाते हैं समंदर में, हो जाते हैं विलीन
मैं सुन सकता हूं ...
बाहर से ख़ामोश समंदर के भीतर मचे शोर को
कल ही एक जवान व्हेल मां के लिए रोई थी
एक सील शिकारी सार्क से बचने के लिए
चीखी चिल्लाई, मगर बच ना सकी
उसके ख़ूनी जबड़ों से
और आज एक नन्हा समुद्री घोड़ा
ऑक्टोपस को चकमा देने पर ठहाके लगा रहा है
कह रहा है तुम बड़े हो, ख़तरनाक हो तो क्या
मेरा दिमाग़ तुमसे ज़्यादा तेज़ है
मैं सुन सकता हूं...
साइबेरियाई परिंदों के झुंड में ख़ामोश परिंदे को,
उसे इस वक़्त याद सता रही है
अपनी मिट्टी, अपने वतन की
उन पेड़ पौधों की जिन पर उसने घोंसला बनाया
अंडे दिये, फिर उन अंडों से चूजे निकले
उन चूजों को उड़ना सीखाया
मगर सर्दियों में सबसे अहम उड़ान में
वो चूजे थक गए, बीच राह में बैठ गए
शिकार बन गए बहेलियों की साज़िश का
मैं सुन रहा हूं उस परिंदे की रुदन
मैं सुन सकता हूं...
शोर में डूबे कनॉट प्लेस के कोने में
ख़ामोश बैठी बूढ़ी महिला की सदा को
जो सामने कटोरा रख एकटक फुटपाथ देखती रहती है
आने-जाने वाले उसकी तरफ सिक्के उछालते हैं
मगर उसके होंठ दुआ में हिलते नहीं,
हथेलियां आशीर्वाद में उठती नहीं,
आंखें कोई हरकत नहीं करती,
उसकी ये ख़ामोशी चीख-चीख कहती है
दुआओं से, आशीर्वाद से और संवेदनाओं से
ज़िंदगी की खुरदुरी ज़मीन मखमली नहीं होती
अगर होती तो उसके जिगर के टुकड़े
उसे बुढ़ापे में बेघर-बेसहारा नहीं करते,
यहां तो खुशियां उन्हीं के हिस्से हैं
जो धुर्त, मक्कार, लिजलिजे, लचीले और क्रूर हैं
कुछ-कुछ जोंक की तरह
मैं सुनना चाहता हूं ख़ामोश आवाज़ों को
क्योंकि मैं जानता हूं और महसूस करता हूं
ख़ामोशी बोलती है, बतियाती है
जब भी मेरा दिल बहुत दुखता है
जब भी मैं खुद को लाचार महसूस करता हूं
और जब भी मुझे बहुत क्रोध आता है
मैं ख़ामोश हो जाता हूं,
तब मेरी ख़ामोशी मुझसे बतियाती है
बोलने वाली किसी भी रचना से कहीं ज़्यादा
Thursday, August 7, 2008
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10 comments:
बहुत उम्दा, बहुत बढिया.
ख़ामोशी बोलती है, बतियाती है
जब भी मेरा दिल बहुत दुखता है
जब भी मैं खुद को लाचार महसूस करता हूं
और जब भी मुझे बहुत क्रोध आता है
मैं ख़ामोश हो जाता हूं,
तब मेरी ख़ामोशी मुझसे बतियाती है
बोलने वाली किसी भी रचना से कहीं ज़्यादा
... सच में खामोशी बात करती है. अच्छी कविता.
खामोशी बोलती है, उसकी सदाएं बड़े बडे हुंकार से भी ज्यादा तीखी और ताकतवर होती हैं लेकिन इस बात का हमेशा ध्यान रहना चाहिए कि खामोशी धीरे धीरे निष्क्रिय करते हुए कोई शून्य ना बना दे...
बहुत अच्छा लिखे समरेंद्र...अंतस को व्याकुल करने और कई कही अनकही चीजों को लेकर टीस पैदा करने वाली इस बेहतरीन कविता के लिए बधाई...
सलाह और सराहना.. दोनों के लिए आप सभी का शुक्रिया.
aapki kavita padhna achcha laga..kuch hatke lagi ye rachna aur umda bhi.
" a beautiful poem with full thoughts, desires, imagination........"
Regards
झरना कल कल करती रहेगी.... कली हमेशा फूल बनने पर अच्छी लगेगी...चिडिया चहचहाती रहेंगी....दुःख के बाद हमेशा खुशी आएगी.... कम से कम ना हारने वालो के लिए तो जरुर ही
सुंदर और उम्दा..
बहुत खूब.
सटीक लिखा है..आपने
अरसे बाद आपकी लेखनी का कमाल देखने को मिला- बहुत अच्छा लगा.. सटीक लेखन
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