Saturday, May 31, 2008

एक शराबी का दर्द (पार्ट वन)

मैंने शराब और सिगरेट छोड़ दी है .... लेकिन पूरे यकीन से नहीं कह सकता कि हमेशा के लिए छोड़ दी है। आखिर क्यों? वजह है मेरे खून में घुल चुकी शराब और सिगरेट। अब भी कहीं से सिगरेट की गंध आती है तो सांस गहरी हो जाती है। दोस्तों को शराब पीते देखता हूं तो मन मचलने लगता है। प्रेस क्लब जाता हूं तो अंदर घुट रहा शराबी चीखता चिल्लाता है कि एक बेहद छोटा ही सही पेग लगा ले। जब जागरूक समरेंद्र मना करता है तो वो शराबी मोल-भाव करने लगता है। कहता है कि दोस्त के पेग से एक सिप लेकर तो देख। भीतर के शराबी और जागरुक शख्स के बीच जोरदार जंग चल रही है। जब तक जागरुक शख्स अंदर के उस शराबी का गला पूरी तरह घोंट नहीं देगा ... मैं दावे से नहीं कह सकता कि मैंने शराब और सिगरेट हमेशा के लिए छोड़ दी है। आज नो टोबैको डे पर मैं एक सीरीज शुरू करने जा रहा हूं। इस सीरीज में मैं सिलसिलेवार ढंग से अपने भोगे हुए यथार्थ को बयां करुंगा। शराब और सिगरेट के जोखिम को बयां करुंगा और जिस दिन एक भी शख़्स को मेरे इस भोगे हुए यथार्थ से शराब और सिगरेट की लत छोड़ने की प्रेरणा मिलेगी मैं खुद को कामयाब मानूंगा।

ब्लॉगर भाई राजेश ने कहा है कि किसी की अपील से कोई शख़्स शराब और सिगरेट की आदत नहीं छोड़ता है। ये बड़ा फ़ैसला तो व्यक्ति तभी लेता है जब भीतर से आवाज़ उठती है। पहली नज़र में बात सही लगती है। लेकिन ये उतनी सही है नहीं। इसे समझने के लिए एक छोटा सा उदाहरण देना चाहूंगा। एनडीटीवी का एक कार्यक्रम है सलाम ज़िंदगी। ये बेहतरीन कार्यक्रम हैं और इसमें उन लोगों को सलाम किया जाता है जो अपने कर्मों से खुद की और दूसरों की ज़िंदगी को खूबसूरत बनाते हैं। कुछ समय पहले इसमें अल्कोलिज्म पर एक ऐपिसोड बना। वो एक लाजवाब शो था। मैं सलाम ज़िंदगी का मुरीद हूं। मैंने उसके कई ऐपिसोड देखे हैं। लेकिन सबसे ज्यादा मुझे वही शो पसंद है। शायद इसलिए की उसमें जो दास्तान दिखाई गई थी, वो मुझे अपनी दास्तान लगी। वो हर शराबी और नशेड़ी को सोचने पर मजबूर करने का दमखम रखता था।

उस शो में मशहूर रंगकर्मी पीयूष मिश्रा भी शामिल हुए। एक कामयाब रंगकर्मी, एक लाजवाब अभिनेता के तौर पर नहीं, बल्कि शराब के शिकार शख्स के तौर पर। उस शो में पीयूष मिश्रा ने बड़ी बुलंद आवाज़ में कबूल किया कि वो शराबी थे। ये कबूल करने के लिए बहुत साहस की जरूरत होती है। एक शराबी अपने इस चेहरे को छुपाता फिरता है। खुद से ... मां-बाप से... भाई-बहनों से ... बीवी बच्चों से... और उन तमाम लोगों से जिन्हें वो बहुत चाहता है। ऐसे में कैमरे पर शराबी होने की बात कबूल करने पर कई जोखिम होते हैं। ऐसा करने से एक झटके में लाखों करोड़ो लोग आपके उसे चेहरे से रू-ब-रू हो जाते हैं, जिसे दिन के उजाले में आप खुद देखने से बचते हों। लेकिन पीयूष ने ऐसा किया तो वो साहस भी उन्हें घर से ही मिला। पीयूष ने जब शराब की लत छोड़ी तो घरवालों ने कहा कि तुम नशे के ख़ौफ़नाक चेहरे और उसे छोड़ने के बाद आज़ादी के अहसास को पूरी दुनिया में बयां करो। ये खुल कर कहो कि तुम आज़ाद हो। पीयूष ने कहना शुरू किया और यकीन मानिये मेरे जैसे ना जाने कितने लोगों को नशे की बुरी लत से छुटकारा पाने का बल मिला।

जब मैंने सिगरेट और शराब पीना शुरू किया था, तब मुझे इसके ख़तरों का ज्ञान था। मैं साइंस का छात्र रहा हूं। पढ़ाई में कभी बेहतरीन नहीं रहा, लेकिन इतना जरूर जानता था कि सिगरेट होंठ पर रखते ही आप कश लगाएं ना लगाएं धुआं फेफड़ों तक पहुंच ही जाता है। रसायनिक क्रिया के जरिये निकोटीन जिस्म के भीतर ऑक्सीजन में घुल जाता है। तो हम लोग तो सिगरेट के लंबे लंबे कश खींचते थे। शराब पीते वक़्त ये कश और भी लंबे हो जाते। जितना ज्यादा नशा, सिगरेट का उतना ही लंबा कश। ऐसा करने में मजा बहुत आता था लेकिन इस मजे का अहसास सिर्फ एक दो पेग तक ही रहता है॥ उसके बाद तो नशा इतना हावी हो जाता है कि स्मृतियों में कोई भी अहसास शेष नहीं बचता।

जारी है ...

तारीख - ३१-०५-२००८

समय - २०.५५

ज़िंदगी और भी हसीन लगेगी

आज नो टोबैको डे है। इस दिन का महत्व मैं अच्छी तरह समझ सकता हूं। तंबाकू का सेवन किसी रूप में क्यों ना हो, जिस्म खोखला होता है। फेफड़ों की ताकत कम होने लगती है। फिर वो मुकाम भी आता है जब सांस उखड़ने लगती है। वक्त बेवक्त खांसी आती है और कफ निकलता है। ज़िंदगी का उत्साह भी कम होने लगता है। ऐसा मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि ये मेरा भोगा हुआ यथार्थ है। एक महीने पहले तक सिगरेट की डिब्बी मेरी जेब में रहा करती थी। लेकिन अब मैंने उसे छोड़ दिया है। बड़ी मेहनत के बाद। आज ठीक एक महीना हो गया है सिगरेट को हाथ लगाए। कोशिश यही रहेगी कि आगे कभी इसे हाथ न लगाऊं।

मैंने १९९३ में सिगरेट पीना शुरू किया था। दिन याद नहीं लेकिन महीना अच्छी तरह याद है। दिसंबर की कंपकपाती ठंड में हम सभी दोस्त कॉलेज की सीढ़ियों पर बैठे थे। दयाल सिंह कॉलेज में साइंस सेक्शन की सीढ़ियों पर। अरविंद, राजेश, दिपांकर, अश्विनी, सावन, मोहित, दीपक कपूर और मैं। अरविंद पहले से ही सिगरेट पीता था। उस दिन भी वो सिगरेट पीने लगा। पता नहीं मुझे क्या सूझा मैंने उससे सिगरेट मांगी, लेकिन उसने साफ मना कर दिया। उसका इनकार मेरे झूठे अहम को छलनी कर गया। फिर मैंने जोर देकर कहा कि ... अरविंद सिगरेट दे। उसने कहा ... ये अच्छी चीज नहीं है पार्टनर रहने दे। लेकिन मैं नहीं माना और ज्यादा जोर देने लगा। तब अरविंद को गुस्सा आ गया और उसने गाली देते हुआ कहा कि ... मैं किसी भी सूरत में सिगरेट तुझे नहीं दूंगा। मुझे अच्छी तरह याद है कि तब मैंने उससे कहा कि ... तू क्या समझता है. मैं डेढ़ रुपये की सिगरेट नहीं खरीद सकता। तू देख मैं अभी सिगरेट खरीद कर लाता हूं। अरविंद समझ गया कि आज मैं सिगरेट पी कर ही रहूंगा। झुंझला कर उसने सिगरेट आगे बढ़ाते हुए कहा कि ... मरना है तो ले मर। लेकिन ये कभी मत कहना कि सिगरेट की आदत मेरी वजह से लगी।

उस दिन सिगरेट का धुआं मुझे अच्छा लगा और धीरे धीरे सिगरेट की आदत लग गई और आज भी मैं कभी ये नहीं कहता हूं कि ये आदत अरविंद की वजह से लगी। फिर वो वक्त भी आया जब सिगरेट ने मुझे गुलाम बना लिया। जब घर में होता, तो उसकी तलब महसूस नहीं होती। लेकिन जैसे ही बाहर निकलता तलब लग जाती। रुपया पैसा और शरीर की ऊर्जा सिगरेट के धुएं में उड़ने लगी। इस दौरान अस्थमा की शिकायत भी हो गई। डॉक्टरों ने कहा कि सिगरेट छोड़ दो। कई बार कोशिश की, लेकिन सिगरेट नहीं छूटी।

आखिरकर बीते महीने मैंने एक और प्रयास किया। इस बार सिर्फ सिगरेट ही नहीं, शराब, पान मसाला और तमाम चीजों को एक साथ छोड़ने का फैसला लिया। शुरुआती चंद दिन काफी परेशानी भरे रहे। लेकिन अब विश्वास बढ़ने लगा है। इसका असर भी महसूस कर रहा हूं। पहले जितनी नींद नहीं आती, थकान भी महसूस नहीं होती है। हां डाइजेस्टिव सिस्टम में थोड़ी दिक्कत जरूर है, लेकिन कोशिश में हूं कि योग के जरिये उसे भी ठीक कर लूं।

सच कहूं तो जमाने बाद ज़िंदगी खूबसूरत लग रही है। इसलिए मेरी उन सभी लोगों से, जिन्हें सिगरेट और शराब की लत लगी हुई है, यही अपील है कि हो सके तो इससे छुटकारा पाने की कोशिश करिये। कुछ दिनों के लिए ही सही छोड़ कर देखिये, मेरा दावा है ज़िंदगी ज़्यादा हसीन नज़र आएगी। और ये कहने में भी आप फख्र महसूस करेंगे कि मैंने सिगरेट और शराब छोड़ दी है.

तारीख - ३१ मई, २००८

समय - १४.२३

राम मिलाई जोड़ी

कुछ दिन पहले मित्र अमिय मोहन और मैंने एक बार फिर ख़्वाजा के दरबार में हाजिरी बजाने का मन बनाया। हम वहां पिछले साल गए थे। जून के ही महीने में। तब मेरे घर दो नन्ही परियों ने जन्म लिया था। ख्वाजा से मैंने दुआ मांगी थी और वादा किया था कि जल्दी ही मत्था टेकने दोबारा आऊंगा। लेकिन एक साल होने को है, मैं लाख कोशिशों के बाद भी वहां जा नहीं सका हूं। कभी कुछ तो कभी कुछ। हर बार जाने का कार्यक्रम टालना पड़ा। इस बार फ़ैसला किया था कि कार्यक्रम नहीं टालूंगा। अमिय से बात हुई तो वो भी तैयार हो गए। वैसे वो अजमेर जाने के नाम पर हमेशा तैयार रहते हैं। कई बार जा चुके हैं। पिछले साल मैं भी उन्हीं के साथ ही गया था। उसके बाद भी वो एक चक्कर लगा आएं। तय कार्यक्रम के मुताबिक हम लोग रविवार को अजमेर पहुंचने वाले थे. लेकिन उससे पहले गुर्जर आंदोलन शुरू हो गया। घरवाले अजमेर जाने की खबर सुन कर भड़क गए। अमिय मोहन ने भी कहा कि कुछ दिन रुक ही जाते हैं। कार्यक्रम फिर टालना पड़ा और नौ दिन बीत चुके हैं हम दोनों अब भी राजस्थान में अमन का इंतज़ार कर रहे हैं। आखिर हमारा इंतज़ार क्यों बढ़ता जा रहा है? नौ दिन बीतने के बाद भी वहां हिंसा क्यों नहीं थम रही? और क्या कभी इसका हल निकलेगा या नहीं?
दरअसल ये पूरा मसला इतना उलझा हुआ है कि हल निकालने की गारंटी कोई नहीं दे सकता। गुर्जरों ने मांग ही कुछ ऐसी रख दी है कि किसी भी सरकार के लिए किसी नतीजे पर जल्दी पहुंचना मुमकिन नहीं। अगर राज्य सरकार उन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की सिफारिश करने को तैयार हो जाए तो राजस्थान में एक नया सियासी संकट पैदा होगा। वो सियासी संकट उस श्रेणी में पहले से मौजूद जातियों के विरोध के कारण पैदा होगा। उस सूरत में इसकी भी आशंका है कि उन जातियों और गुर्जरों के बीच कोई झगड़ा ना शुरू हो जाए। इस ख़तरे का अहसास बीजेपी के साथ कांग्रेस को भी है। यही वजह है कि कोई भी सियासी दल गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में डालने का सीधा वादा नहीं कर रहा।
मांग बड़ी होने के साथ गुर्जर नेतृत्व ने गलती भी की है। फौज छोड़ कर सियासत में कदम रख रहे कर्नल बैंसला अपनी नादानी के कारण अपने ही जाल में उलझ गए हैं। उन्हें अगर अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग पर आंदोलन करना था तो ये आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से होना चाहिये था। लेकिन वो अपने लोगों को काबू में नहीं रख सके। यही नहीं सियासत में दो कदम आगे बढ़ा कर एक कदम पीछे हटाना पड़ता है। कर्नल बैंसला कदम आगे बढ़ाना तो जानते हैं लेकिन वक्त पर पीछे हटाना नहीं जानते। वो भूल गए हैं कि किसी भी रस्सी को एक सीमा तक ही खींचा जा सकता है। उसके बाद जोर देने पर रस्सी टूट जाती है। फिलहाल कर्नल बैंसला रस्सी को उसी हद तक खींचने की कोशिश कर रहे हैं।
यहां एक गलती राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से भी हुई है। अब बीजेपी को भी वसुंधरा राजे को नेतृत्व सौंपने की गलती का अहसास हो रहा होगा। वसुंधरा राजे किसी भी लिहाज से जनता की सेवक होने की हकदार नहीं। वो निजी स्वार्थों में डूबी एक ऐसी नेता हैं जिन्हें जनता से ज्यादा फैशन और पार्टियों से मोहब्बत है। यही वजह है कि उन्होंने अपने राज्य की पुलिस को जनता से व्यवहार का तरीका नहीं सिखाया। उनके राज में पुलिस इतनी मदहोश है कि वो बात बात पर लोगों पर गोलियों की बौछार कर देती है। चाहे वो गंगानगर में पानी के लिए किसानों का प्रदर्शन हो या फिर अनुसूचित जनजाति का दर्जा मांग रहे गुर्जरों का प्रदर्शन।
ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब दोनों ही तरफ से अदूरदर्शी और अविवेकशील नेतृत्व हो तो किसी समस्या का हल निकले भी तो कैसे?

Friday, May 30, 2008

कप्तान के कारण मेरी टीम हार गई

मेरी टीम मैच हार गई। दिल्ली डेयरडेविल्स पर मैंने काफी दांव लगाया था। रुपये पैसे का नहीं बल्कि जुबानी दांव। ऑफिस और घर पर जो कोई मुझते पूछता की कौन सी टीम खिताब जीतेगी मेरे मुंह से दिल्ली का नाम निकल जाता। इसकी दो बड़ी वजहें थी। पहली वजह कि मैं दिल्ली में रह रहा हूं और मेरे गांव से बाकी टूसरे शहरों की टीमों की तुलना में दिल्ली नजदीक भी है। दूसरी वजह कि सचिन तेंदुलकर के बाद वीरेंद्र सहवाग को ही बतौर बल्लेबाज मैं सबसे अधिक पसंद करता हूं। मुझे ये हमेशा लगता रहा कि धोनी को कप्तान बना कर सहवाग के साथ ज्यादती की गई है। मैं यहा साफ कर दूं कि ये बिल्कुल मेरी निजी राय है और इससे किसी को सहमत होने की जरूरत नहीं है। मगर अब मेरी राय बिल्कुल बदल गई है।
दरअसल किसी भी टीम की जीत में कप्तान की बड़ी भूमिका होती है। टीम आंकड़ों के लिहाज से कितनी ही बेहतर क्यों ना हो, अगर कप्तान कमजोर है तो टीम कामयाब नहीं हो सकती। पूरे टूर्नामेंट में सहवाग ने ये बार बार साबित किया है कि वो अच्छे कप्तान नहीं हो सकते। बल्कि और साफ शब्दों में कहें तो वो कप्तान बनने के लायक ही नहीं। आज के मैच को ही लें। मुकाबला राजस्थान रॉयल्स के साथ था। वैसे तो रॉयल्स हर मोर्चे पर कामयाब रहे हैं लेकिन उनकी गेंदबाजी का कोई जवाब नहीं। टूर्नामेंट के दो सबसे कामयाब गेंदबाज सोहेल तनवीर और शेन वॉर्न उसी टीम के हैं। शेन वॉटसन भी गजब फॉर्म में हैं। मुनाफ पटेल भले ही उतना कामयाब नहीं हुए, लेकिन उन्होंने किफायती गेंदबाजी जरूर की है। गेंजबाजी के लिहाज के ऐसी मजबूत टीम के स्कोर का पीछा करना किसी के लिए भी आसान नहीं। ये वो टीम है जो छोटे से छोटे स्कोर पर भी जीत हासिल करने का दमखम रखती है। ऐसे में सहवाग को टॉस जीतने के बाद बल्लेबाजी का फैसला लेना चाहिये था। लेकिन न जाने क्या सोच कर उन्होंने गेंदबाजी चुनी। नतीजा सबके सामने है। रॉयल्स ने १९३ का लक्ष्य दिया जबाव में दिल्ली की टीम ८७ रन पर लुढ़क गई। कप्तान वीरेंद्र सहवाग और ओपनर गौतम गंभीर समेत सारे खिलाड़ी अच्छी गेंदबाजी और दबाव में टूट कर बिखऱ गए।
इससे पहले १७ मई को दिल्ली का मुकाबला पंजाब की टीम से हुआ। मैच पर बारिश का साया था. दिल्ली ने पहले बल्लेबाजी करते हुए ११ ओवर में ११८ रन बनाए। पंजाब की टीम पीछा करने के लिए मैदान में उतरी। दिल्ली को चाहिये था कि किसी भी वक्त पंजाब के रन रेट को अपने रन रेट से आगे ना निकलने दे। उस दिन सहवाग पांच गेंदबाज के साथ मैदान पर उतरे थे। सबकुछ ठीक चल रहा था लेकिन ना जाने सहवाग को क्या सूझा पांचवा ओवर वो खुद करने लगे। उस ओवर में पंजाब ने २२ रन ठोक दिये। सारा लय बिगड़ गया। आठ ओवर बाद जब मैच रोका गया तब पंजाब का स्कोर ९४ रन था और वो रन रेट के आधार पर छह रन से मैच जीत गया। हार की वजह सहवाग का फैसला।
आठ मई को चेन्नई सुपर किंग्स के खिलाफ का मैच भी सभी को याद होगा। गंभीर के शानदार ८० रन की बदौलत दिल्ली ने चेन्नई को १८८ रन का लक्ष्य दिया। उस मैच में सहवाग चार गेंदबाज के साथ मैदान पर उतरे थे। क्या सोच कर ये कोई नहीं जानता। अगर बीस ओवर के मुकाबले में भी बल्लेबाजों पर भरोसा करते हुए पांच गेंदबाज के साथ कोई टीम मैदान पर नहीं उतर सकती तो उसे खेलने का कोई हक नहीं। सहवाग ने यही गलती की। मजबूरी में चार ओवर उन्हें और शोएब मलिक को करने पड़े। उस चार ओवर में दोनों ने मिल कर ५८ रन दिये। इन ५८ रनों में भी सहवाग की हिस्सेदारी ३० की थी। नतीजा आखिरी गेंद पर चेन्नई जीत गया।
साफ है कि दिल्ली की टीम एक बेहद मजबूत टीम थी। लेकिन सिर्फ सहवाग के गलत फैसलों का खामियाजा पूरी टीम चुका रही है और एक समर्थक होने के नाते हार का बोझ उठाए मैं दफ्तर के लिए निकल रहा हूं।

क्या हम सड़क पर चलना नहीं जानते?

दफ्तर से लौटते वक्त लगा कि गाड़ी भिड़ जाएगी। ग्रेटर कैलाश से आईटीओ की तरफ बढ़ने पर ओबेरॉय होटल के पास से बायीं तरफ इंडिया गेट के लिए रास्ता निकलता है। मैं इंडिकेटर देते हुए धीरे धीरे उधर मुड़ने लगा। लेकिन तभी एक तेज रफ्तार कार पॉवर हॉर्न बजाते हुए वायें से निकलने लगी। अगर मैंने जोर से ब्रेक नहीं दबाया होता तो हादसा तय था। ये पहली बार नहीं है। दिल्ली की सड़क पर गाड़ी चलाते हुए कुछ अधिक सतर्क रहना पड़ता है। यहां ज्यादातर लोग बेतरतीब ढंग से गाड़ी चलाते हैं। कोई साठ की लेन में तीस की रफ्तार से चलता है तो कोई चालीस की लेन में अस्सी की रफ्तार से। ऑटो और मोटरसाइकिल का तो कोई भरोसा नहीं। आप तेज रफ्तार से आखिरी लेन में गाड़ी चला रहे हों तो अचानक कोई ऑटो या मोटरसाइकिल सामने आ जाएगा। हल्की सी चूक हुई तो आप बुरे फंसे। अब तो कोर्ट ने भी कह दिया है कि जितनी बड़ी गाड़ी उतनी बड़ी जवाबदेही।
कुछ दिन पहले की बात है। बीवी के साथ कनॉट प्लेस से गोल मार्केट जा रहा था। तभी थोड़ी दूर पर एक शख्स हाथ देता हुआ सड़क पार करने लगा। मैंने गाड़ी रोक दी। शख्स सामने से गुजर गया तो मैंने गाड़ी बढ़ा दी। तभी पीछे से आती हुई एक और कार उस शख्स के सामने से दनदनाते हुए निकली। वो थोड़ी देर के लिए हड़बड़ा गया। उसने अपना कदम नहीं रोका होता तो वो कार उसे कुचल देती। मेरी बीवी ने कहा कि कितना बदतमीज था वो गाड़ी वाला। मैं हंसने लगा तो उसके चेहरे पर हैरानी का भाव आ गया। फिर मैंने उसे बताया कि बद्तमीज गाड़ी वाला नहीं बल्कि सड़क पार करने वाला शख्स था। दरअसल वो शख्स जहां सड़क पार कर रहा था उससे महज पचास मीटर दूर रेडलाइट है और जेब्रा क्रॉसिंग भी। उस शख्स को चाहिये था कि वो जेब्रा क्रासिंग पर पहुंच कर सड़क पार करे या फिर सड़क खाली होने का इंतजार करे। लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। ऐसे में अगर उसे टक्कर लगती तो भी गलती कार वाले की ही देखी जाती।
ये कुछ उदाहरण भर ही हैं। दिल्ली में सड़क पर गाड़ी चलाना किसी जांबाजी से कम नहीं। यहां हर कदम पर ख़तरा है। कुछ पैदल चलने वाले मदहोश होकर सड़क पार करते हैं तो कुछ लोग गाड़ी मदहोश होकर चलाते हैं। ऐसे में जब कोई नेता या अधिकारी कहता है कि लोगों को सड़क पर चलने का सलीका नहीं तो हम मीडियाकर्मी उसके पीछे हाथ धो कर पड़ जाते हैं। जबकि सच यही है कि दिल्ली में ज्यादातर लोगों को सड़क पर चलने का सलीका नहीं आता।

तारीख - ३० मई, २००८

समय - १२.३५

Thursday, May 29, 2008

अंकों का बोझ

आज सुबह आठ बजे दसवीं के नतीजे आए। उस समय मैं दफ्तर में था और वहां से नौ बजे के करीब घर पहुंचा। तब तक मेरा भाई अपना नतीजा जानने के लिए कई फोन कर चुका था। परीक्षा के बाद वो छुट्टियां बिताने के लिए गांव चला गया। मेरी तरह उसे भी गांव काफी पसंद है। बलिया जिले का चौरा कथरिया गांव। सड़क के शोर से एक कोस दूर। बस से उतरने के बाद खड़ींजा पर गांव की तरफ बढ़ते हुए पहले खेत पड़ते हैं... फिर बगीचे और उसके बाद आबादी। बगीचे और आबादी के बीच करीब दो सौ मीटर की परती है। परती में कुछ बड़े गड्ढे और उन गड्ढों के बीच में पतली पतली पगडंडियां। उन्हों पगडंडियों से होकर हम लोग करीब पंद्रह फुट की ऊंचाई पर बसे गांव में दाखिल होते हैं। हमारा घर गांव के बाहरी छोर पर है। इसलिए दुआर से आबादी नहीं परती, बगीचे और खेल खलिहान नज़र आते हैं। वो खेत खलिहान और बगीचे जिन्हें देखने के लिए आंखें हर वक्त तरसती रहती हैं। अरे ये क्या? मैं लिखने बैठा था दसवीं के नतीजों पर और गांव का ब्योरा देने लगा।
घर पहुंचते ही कंप्यूटर ऑन किया, लेकिन इंटरनेट ने धोखा दे दिया। फिर दोस्त विचित्र मणि को फोन किया और भाई का रोल नंबर नोट कराया। थोड़ी देर बाद पार्टनर ने फोन किया और बताया कि भाई को 83 प्रतिशत अंक मिले हैं। मेरे खानदान में अब तक किसी ने इतने अंक हासिल नहीं किये थे। मैंने खुशी खुशी गांव फोन किया और भाई को शाबाशी के साथ हर विषय में मिले अंक की जानकारी दी। नंबर सुनने के बाद वो खुश होने की जगह उदास हो गया। आवाज धीमी पड़ गई। लगा कि अगर अभी नहीं संभाला, हौसला नहीं बढ़ाया तो वो रो देगा। हालांकि समझाने पर आंसू तो नहीं निकले लेकिन आवाज़ में छिपी उदासी ख़त्म नहीं हुई। उसके बाद मैंने घर में हर किसी से बात की। सबसे कहा कि उसे जी खोल कर बधाई और शाबासी दें ताकि उसकी उदासी दूर हो। सभी की कोशिश से अब जाकर उसकी उदासी दूर हुई है।
दरअसल आज के दौर का ये एक डरावना चेहरा है। जिन घरों में बच्चों पर ज्यादा अंक लाने के लिए दबाव नहीं डाला जाता ॥ उन घरों के बच्चों पर भी परीक्षा का तनाव कम नहीं होता है। व्यवस्था ही ऐसी बना दी गई है कि बच्चे खुद ब खुद दबाव में आ जाते हैं। स्कूल में मास्टर ज्यादा अंक हासिल करने की सीख देता है। बच्चे एक दूसरे से होड़ करते हैं और ये होड़ बच्चों में कॉम्पेलक्स को जन्म देता है। हम सब उस दौर से गुजर चुके हैं। लेकिन हमारे वक्त में ये तनाव इतना अधिक कभी नहीं रहा। दसवीं में सेकेंड डिविजन होने के बाद भी साइंस में दाखिला मिल गया। बारहवीं में 70 प्रतिशत पर कॉलेज में दाखिला मिल गया और कॉलेज की पढ़ाई के बाद मनचाही नौकरी भी मिल गई।
मुझे अच्छी तरह याद है कि दसवीं की परीक्षा में गणित में मेरे मात्र 44 अंक थे। बावजूद इसके साइंस सेक्शन के इंचार्ज दीक्षित सर ने कम नंबर का हवाला देकर साइंस में दाखिला देने से मना नहीं किया था। अगर उन्होंने मुझे मना कर दिया होता तो मेरे मन में कई तरह की कुंठाएं जन्म लेतीं। ये और बात है कि साइंस में दाखिला लेने के बाद भी मैं उस क्षेत्र में कोई कमाल नहीं कर सका। लेकिन इतना संतोष जरूर है कि एक सीमा तक ही सही मैंने अपनी पसंद के विषय में पढ़ाई की। आज के दौर में ये संभव नहीं है। अगर दसवीं में 75 फीसदी से कम अंक आए तो साइंस और कॉमर्स में दाखिला आसान नहीं। यही वजह है कि जिन घरों में ज्यादा अंक के लिए दबाव नहीं डाला जाता है वहां भी बच्चे तनाव में आ जाते हैं। ये तनाव साथियों से पिछड़ने का है तनाव है। स्कूल और क्लास में शर्मींदगी से जूझने का तनाव है। जब तक मौजूदा व्यवस्था में बुनियादी बदलाव नहीं होंगे .. ये तनाव खत्म नहीं होगा। और ये तनाव बहुत से बच्चों पर बहुत भारी पड़ता है।
कई संवेदनशील बच्चे तो परीक्षा के नतीजों से पहले ही टूट जाते हैं। उनका धैर्य और हौसला जवाब दे देता है। बीती रात भी दिल्ली में एक लड़की का हौसला जवाब दे गया। वो परीक्षा और नतीजों के बीच के तनाव को बर्दाश्त नहीं कर सकी। उस लड़की का नाम भारती था। भारत देश की वो भारती जिसे ज़िंदगी के न जाने कितने वसंत देखने थे। प्रकृति के सौंदर्य को मसहूस करना था। तमाम खुशियों को झोली में समेटना था। लेकिन ऐसा करने से पहले ही उसने एक खतरनाक फैसला ले लिया। जनकपुरी के सात मंजिला सिटी सेंटर की छत से कूद कर जान दे दी। अब भारती इस दुनिया में नहीं है, लेकिन वो पीछे छोड़ गई है एक सवाल। सवाल कि क्या मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में इसी तरह हमारे बच्चे सिसकते और दम तोड़ते रहेंगे? क्या हम कभी भी अपने बच्चों को स्कूली परीक्षा से मुक्त कर ज़िंदगी के संघर्ष के लिए तैयार होने का अवसर नहीं देंगे? ये सवाल काफी बड़े हैं और इन सवालों का जवाब ढूंढना बेहद जरूरी है।

29 मई, 2008
दोपहर 1210

Wednesday, May 28, 2008

चंद सवाल ... खुद से

जमाना बीत गया है अपने लिये कुछ लिखे हुए। दफ़्तर में तो हर रोज कई पन्ने टाइप कर लेता हूं, लेकिन अपनी ज़िंदगी को पन्नों पर दर्ज करने के लिए या यूं कहें कि अपने लिये लिखने की फुर्सत ही नहीं मिलती। खाली होने पर खालीपन का अहसास इतना गहरा हो जाता है कि कुछ भी करने का जी नहीं करता। जब से शराब और सिगरेट छोड़ दी है, कई दोस्तों से मिलने का बहाना भी छूट गया है। इसलिए ज्यादातर वक्त अब घर में कटता है। टीवी देखते, सोते और ये सोचते हुए कि ज़िंदगी के मायने क्या है। क्या यूं ही अंतहीन... अंधेरे सफ़र पर चलते जाना मेरी नियति है? क्या जीवन का सिर्फ़ इतना ही लक्ष्य है कि अपना और परिवार का पेट पाल लें? छोटे भाई-बहनों को पढ़ा लें? बच्चों के लिए कुछ जमा कर दें?
हर रोज ये सवाल जेहन में उठते हैं। दिल तसल्ली देता है कि अपनी क्षमता और जिम्मेदारियों के बीच तालमेल बिठाते हुए जितना संभव है उतना कर रहा हूं। लेकिन क्या ये बचाव की दलील नहीं है? कमजोरियों को छुपाने की कोशिश नहीं है? जब जोर देकर खुद से ही दोबारा ये सवाल करता हूं तो भीतर से ... दिल की गहराई से एक ही जवाब आता है और वो जवाब है हां।
जब मैं अपने भीतर झांकता हूं तो पाता हूं कि मेरे सपने, मेरी चाहतें अनंत हैं। मुझे अपने भीतर वो शख्स मिलता है जो हर रोज गांव लौटने के बारे में सोचता है। मिट्टी में जी भर कर लोटना चाहता है, बारिश में खुल कर नहाना चाहता है। गंगा किनारे घंटों बैठ कर लहरें गिनना चाहता है। पत्थर मारकर पेड़ से पके हुए आम गिराना चाहता है, आंधी आने पर बोरा उठाकर सरपट बगइचा की ओर दौड़ लगाना चाहता है ताकि ज्यादा से ज्यादा आम बटोर सके। अंधेरिया रात में आसमान के तारे गिनना चाहता है। एक बार फिर बच्चों के साथ चीका खेलना चाहता है। बाढ़ में झिझरी का लुत्फ उठना चाहता है। लेकिन शहर के ताने-बाने में इस कदर उलझ चुका है कि ऐसा कुछ कर नहीं पाता। पर क्या ये पूरा सच है? शायद नहीं।
गौर से मूल्याकंन करने पर पाता हूं कि मुझे आराम की आदत लग चुकी है। इस कदर की सपनों को पूरा करने के लिए ख़तरे उठाने का साहस नहीं जुटा पाता। इससे कई बार झुंझलाहट पैदा होती है। कई बार लगता है कि सबकुछ छोड़ कर गांव लौट चला जाए। जो थोड़ी बहुत पुश्तैनी जमीन है उसी पर कुछ सृजन किया जाए। लेकिन अब तक ऐसा कदम नहीं उठा सका हूं। हर बार मेरा दिल ऐसा नहीं करने का बहाना ढूंढ लेता है। वो मुझसे कहता है कि तू किस गांव और किस जमीन की बात कर रहा है। वो जमीन तो कई टुकड़ों में बंट चुकी है। कोई किसी मौजा में है तो कोई किसी मौजा में। टुकड़े इतने हैं कि सभी को बटोर कर कुछ ठोस कर पाना मुमकिन नहीं दिखता।
मैं जानता हूं कि ये भी बहाना भर है। सच यही है कि मेरी ज़िंदगी कई टुकड़ों में बंटी है। एक ओर मेरे सपने हैं, ख़्वाहिशें हैं और दूसरी तरफ मेरी कमजोरियां। जिस दिन मैं अपनी कमजोरियों पर काबू पा लूंगा. मेरे कदम सपनों को साकार करने की तरफ खुद ब खुद बढ़ जाएंगे। ज़िंदगी अपने मायने ढूंढ लेगी। लेकिन अभी तक मैं ऐसा नहीं कर सका हूं और ये नाकामी झुंझलाहट बढ़ा रही है। आज सुबह ये झुंझलाहट थोड़ी और बढ़ गई है।
दिन- २८ मई, २००८
वक्त- सुबह १० बजे