Wednesday, May 28, 2008

चंद सवाल ... खुद से

जमाना बीत गया है अपने लिये कुछ लिखे हुए। दफ़्तर में तो हर रोज कई पन्ने टाइप कर लेता हूं, लेकिन अपनी ज़िंदगी को पन्नों पर दर्ज करने के लिए या यूं कहें कि अपने लिये लिखने की फुर्सत ही नहीं मिलती। खाली होने पर खालीपन का अहसास इतना गहरा हो जाता है कि कुछ भी करने का जी नहीं करता। जब से शराब और सिगरेट छोड़ दी है, कई दोस्तों से मिलने का बहाना भी छूट गया है। इसलिए ज्यादातर वक्त अब घर में कटता है। टीवी देखते, सोते और ये सोचते हुए कि ज़िंदगी के मायने क्या है। क्या यूं ही अंतहीन... अंधेरे सफ़र पर चलते जाना मेरी नियति है? क्या जीवन का सिर्फ़ इतना ही लक्ष्य है कि अपना और परिवार का पेट पाल लें? छोटे भाई-बहनों को पढ़ा लें? बच्चों के लिए कुछ जमा कर दें?
हर रोज ये सवाल जेहन में उठते हैं। दिल तसल्ली देता है कि अपनी क्षमता और जिम्मेदारियों के बीच तालमेल बिठाते हुए जितना संभव है उतना कर रहा हूं। लेकिन क्या ये बचाव की दलील नहीं है? कमजोरियों को छुपाने की कोशिश नहीं है? जब जोर देकर खुद से ही दोबारा ये सवाल करता हूं तो भीतर से ... दिल की गहराई से एक ही जवाब आता है और वो जवाब है हां।
जब मैं अपने भीतर झांकता हूं तो पाता हूं कि मेरे सपने, मेरी चाहतें अनंत हैं। मुझे अपने भीतर वो शख्स मिलता है जो हर रोज गांव लौटने के बारे में सोचता है। मिट्टी में जी भर कर लोटना चाहता है, बारिश में खुल कर नहाना चाहता है। गंगा किनारे घंटों बैठ कर लहरें गिनना चाहता है। पत्थर मारकर पेड़ से पके हुए आम गिराना चाहता है, आंधी आने पर बोरा उठाकर सरपट बगइचा की ओर दौड़ लगाना चाहता है ताकि ज्यादा से ज्यादा आम बटोर सके। अंधेरिया रात में आसमान के तारे गिनना चाहता है। एक बार फिर बच्चों के साथ चीका खेलना चाहता है। बाढ़ में झिझरी का लुत्फ उठना चाहता है। लेकिन शहर के ताने-बाने में इस कदर उलझ चुका है कि ऐसा कुछ कर नहीं पाता। पर क्या ये पूरा सच है? शायद नहीं।
गौर से मूल्याकंन करने पर पाता हूं कि मुझे आराम की आदत लग चुकी है। इस कदर की सपनों को पूरा करने के लिए ख़तरे उठाने का साहस नहीं जुटा पाता। इससे कई बार झुंझलाहट पैदा होती है। कई बार लगता है कि सबकुछ छोड़ कर गांव लौट चला जाए। जो थोड़ी बहुत पुश्तैनी जमीन है उसी पर कुछ सृजन किया जाए। लेकिन अब तक ऐसा कदम नहीं उठा सका हूं। हर बार मेरा दिल ऐसा नहीं करने का बहाना ढूंढ लेता है। वो मुझसे कहता है कि तू किस गांव और किस जमीन की बात कर रहा है। वो जमीन तो कई टुकड़ों में बंट चुकी है। कोई किसी मौजा में है तो कोई किसी मौजा में। टुकड़े इतने हैं कि सभी को बटोर कर कुछ ठोस कर पाना मुमकिन नहीं दिखता।
मैं जानता हूं कि ये भी बहाना भर है। सच यही है कि मेरी ज़िंदगी कई टुकड़ों में बंटी है। एक ओर मेरे सपने हैं, ख़्वाहिशें हैं और दूसरी तरफ मेरी कमजोरियां। जिस दिन मैं अपनी कमजोरियों पर काबू पा लूंगा. मेरे कदम सपनों को साकार करने की तरफ खुद ब खुद बढ़ जाएंगे। ज़िंदगी अपने मायने ढूंढ लेगी। लेकिन अभी तक मैं ऐसा नहीं कर सका हूं और ये नाकामी झुंझलाहट बढ़ा रही है। आज सुबह ये झुंझलाहट थोड़ी और बढ़ गई है।
दिन- २८ मई, २००८
वक्त- सुबह १० बजे

3 comments:

पीयूष पाण्डे said...

अरे बंधु,अपना भी वक्त आएगा। वक्त सबको मौके देता है। हमें भी देगा,तुम्हें भी देगा।
पार्टनर का ब्लॉग देखकर अच्छा लगा।
वैसे,कुछ दोस्त ऐसे भी होते हैं,जो शराब और सिगरेट नहीं पीते.जो सिर्फ गपियाना पसंद करते हैं,सो उनसे ही गपियालो......
चिंता छोड़ो सुख से जीयो...

पीयूष पांडे

Udan Tashtari said...

धीरज धरें. इसी झुंझलाहट में सभी झुंझला रहे है, कोई कम तो कोई ज्यादा.

sushant jha said...

आपने कितने ही दिलों की बात एक ही साथ कह दी..सही है..कि आदमी क्या क्या करता है...लेकिन दिल कहीं और ही धड़कता है...