आज नो टोबैको डे है। इस दिन का महत्व मैं अच्छी तरह समझ सकता हूं। तंबाकू का सेवन किसी रूप में क्यों ना हो, जिस्म खोखला होता है। फेफड़ों की ताकत कम होने लगती है। फिर वो मुकाम भी आता है जब सांस उखड़ने लगती है। वक्त बेवक्त खांसी आती है और कफ निकलता है। ज़िंदगी का उत्साह भी कम होने लगता है। ऐसा मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि ये मेरा भोगा हुआ यथार्थ है। एक महीने पहले तक सिगरेट की डिब्बी मेरी जेब में रहा करती थी। लेकिन अब मैंने उसे छोड़ दिया है। बड़ी मेहनत के बाद। आज ठीक एक महीना हो गया है सिगरेट को हाथ लगाए। कोशिश यही रहेगी कि आगे कभी इसे हाथ न लगाऊं।
मैंने १९९३ में सिगरेट पीना शुरू किया था। दिन याद नहीं लेकिन महीना अच्छी तरह याद है। दिसंबर की कंपकपाती ठंड में हम सभी दोस्त कॉलेज की सीढ़ियों पर बैठे थे। दयाल सिंह कॉलेज में साइंस सेक्शन की सीढ़ियों पर। अरविंद, राजेश, दिपांकर, अश्विनी, सावन, मोहित, दीपक कपूर और मैं। अरविंद पहले से ही सिगरेट पीता था। उस दिन भी वो सिगरेट पीने लगा। पता नहीं मुझे क्या सूझा मैंने उससे सिगरेट मांगी, लेकिन उसने साफ मना कर दिया। उसका इनकार मेरे झूठे अहम को छलनी कर गया। फिर मैंने जोर देकर कहा कि ... अरविंद सिगरेट दे। उसने कहा ... ये अच्छी चीज नहीं है पार्टनर रहने दे। लेकिन मैं नहीं माना और ज्यादा जोर देने लगा। तब अरविंद को गुस्सा आ गया और उसने गाली देते हुआ कहा कि ... मैं किसी भी सूरत में सिगरेट तुझे नहीं दूंगा। मुझे अच्छी तरह याद है कि तब मैंने उससे कहा कि ... तू क्या समझता है. मैं डेढ़ रुपये की सिगरेट नहीं खरीद सकता। तू देख मैं अभी सिगरेट खरीद कर लाता हूं। अरविंद समझ गया कि आज मैं सिगरेट पी कर ही रहूंगा। झुंझला कर उसने सिगरेट आगे बढ़ाते हुए कहा कि ... मरना है तो ले मर। लेकिन ये कभी मत कहना कि सिगरेट की आदत मेरी वजह से लगी।
उस दिन सिगरेट का धुआं मुझे अच्छा लगा और धीरे धीरे सिगरेट की आदत लग गई और आज भी मैं कभी ये नहीं कहता हूं कि ये आदत अरविंद की वजह से लगी। फिर वो वक्त भी आया जब सिगरेट ने मुझे गुलाम बना लिया। जब घर में होता, तो उसकी तलब महसूस नहीं होती। लेकिन जैसे ही बाहर निकलता तलब लग जाती। रुपया पैसा और शरीर की ऊर्जा सिगरेट के धुएं में उड़ने लगी। इस दौरान अस्थमा की शिकायत भी हो गई। डॉक्टरों ने कहा कि सिगरेट छोड़ दो। कई बार कोशिश की, लेकिन सिगरेट नहीं छूटी।
आखिरकर बीते महीने मैंने एक और प्रयास किया। इस बार सिर्फ सिगरेट ही नहीं, शराब, पान मसाला और तमाम चीजों को एक साथ छोड़ने का फैसला लिया। शुरुआती चंद दिन काफी परेशानी भरे रहे। लेकिन अब विश्वास बढ़ने लगा है। इसका असर भी महसूस कर रहा हूं। पहले जितनी नींद नहीं आती, थकान भी महसूस नहीं होती है। हां डाइजेस्टिव सिस्टम में थोड़ी दिक्कत जरूर है, लेकिन कोशिश में हूं कि योग के जरिये उसे भी ठीक कर लूं।
सच कहूं तो जमाने बाद ज़िंदगी खूबसूरत लग रही है। इसलिए मेरी उन सभी लोगों से, जिन्हें सिगरेट और शराब की लत लगी हुई है, यही अपील है कि हो सके तो इससे छुटकारा पाने की कोशिश करिये। कुछ दिनों के लिए ही सही छोड़ कर देखिये, मेरा दावा है ज़िंदगी ज़्यादा हसीन नज़र आएगी। और ये कहने में भी आप फख्र महसूस करेंगे कि मैंने सिगरेट और शराब छोड़ दी है.
तारीख - ३१ मई, २००८
समय - १४.२३
4 comments:
सबसे पहले तो इस बुरी संगत को छोड़ देने के लिए आपकी हौसला अफजाई करनी चाहिए. बहुत अच्छा किया. रही बात आपके अपील करे की... कीजिये जरुर कीजिये लेकिन यह बात मैंने बहुत नजदीक से समझा है की यह चीज अपील से नही जाती... यह जाती है इंसान के आत्मविश्वास से.. उसके अपने अनुभव से... जब तक वो ख़ुद यह महसूस नही कर लेता की इस छोड़ना है तब तक आप अपील करे या फ़िर जिरह... सब बेकार है
एक बात और .... आपके दोस्त अरविंद आपके सच्चे मित्र में से होंगे...उनसे नाता बनाये रखे....
अच्छा लिखते हो यार। लिखा करो। और ये पर्दे के पीछे रहने की ज़िद से भी तौबा कर लो। जो लिखता है वही तो देख रहा होता है और वही रिपोर्टर होता है। ख़ैर ज़िंदगी के चंद फैसलों पर अमल करना होता है। बदल जाए तो भी परेशानी नहीं, न बदले तो भी नहीं। सभी पोस्ट पढ़ने के बाद यही लगा कि टीवी ने हमारे भीतर कितने अंतर और अंतर्विरोध पैदा कर दिये हैं। बहुत अच्छा लगा।
रवीश भाई,
हौसला बढ़ाने के लिए धन्यवाद. कोशश करूंगा की लिखता रहूं. ये सिलसिला टूटे नहीं. एक बार फिर धन्यवाद.
राजेश भाई, आपकी बात सही है. कई फैसले सिर्फ किसी के कहने पर नहीं लिये जा सकते. शराब और सिगरेट की लत भी उन्हीं में से एक है. ये व्यक्ति को इतना कमजोर कर देते हैं कि फैसले लेने का साहस ही नहीं बचता. ऐसे में ये कड़ा फैसला लेने के लिए खुद के भीतर आवाज़ उठनी चाहिये. लेकिन यहां ये भी यकीन मानिये कि हर शराबी और नशेड़ी के मन में ये आवाज़ लगातार उठती है. जिस दिन एक या दो पेग या फिर कुछ सिगरेट ज्यादा हो जाते हैं, अगली सुबह उसे अपराध बोध होता है. तब वो इन्हें छोड़ने का फैसला लेता भी है. ये और बात है कि ये बुरी लत ज्यादा देर तक उस फैसले पर अमल नहीं करने देती.
अब सवाल उठता है कि आखिर मेरी और आपकी अपील से क्या कोई फर्क पड़ सकता है. मेरा मानना है कि फर्क पड़ता है. क्यों इस पर जल्दी ही सिलसिलेवार तरीके से एक ब्लॉग लिखता हूं.
धन्यवाद
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