ये एक ख़ौफ़नाक वाकया है. कुछ दिन पहले मेरे एक मेडिकल रिप्रजेंटेटिव मित्र ने मुझे ये वाकया बताया. इसे सुन कर मेरी रूह कांप उठी. इंसान और इंसानियत दोनों पर से यकीन उठने लगा. लगा कि इस बाज़ार में एक इंसान की क़ीमत हाड़-मांस से बने भेड़-बकरियों की तरह ही है, जिनका कारोबार होता है. जितना मोटा बकरा उतनी ज़्यादा क़ीमत. बेचने वाले बिना किसी संवेदना के बकरों को हलाल करते हैं और खरीदने वाले उन्हें घर ले जाकर पकाते हैं और खा जाते हैं. खरीदने वालों की इस फेहरिस्त में मैं खुद शामिल हूं.
हम सब जानते हैं कि दवा कंपनियां डॉक्टरों को रिश्वत देती हैं अपनी दवा के प्रचार के लिए और उसकी बिक्री बढ़ाने के लिए. ऐसी ही एक बड़ी कंपनी ज़िंदगी बचाने के लिए इंजेक्शन तैयार करती है. उस इंजेक्शन की क़ीमत पचास हजार रुपये के करीब है.
एक दिन एक शख्स हादसे का शिकार हुआ. घरवाले उसे तुरंत निजी अस्पताल ले गए. वहां पहुंचने के चंद मिनट बाद उस शख्स ने दम तोड़ दिया. लेकिन डॉक्टर उसे ऑपरेशन थियेटर ले गए. थोड़ी देर बाद एक डॉक्टर बाहर निकला और उसने मरीज़ के घरवालों को एक पर्ची दी. उस पर उसी महंगे इंजेक्शन का नाम लिखा हुआ था. डॉक्टर ने कहा कि मरीज़ की जान बच सकती है अगर वो चार इंजेक्शन ले आएं. घरवाले पैसे लेकर अस्पताल पहुंचे थे. उन्होंने तुरंत चार इंजेक्शन मंगा दिये. करीब तीन घंटे बाद वही डॉक्टर मायूस सा चेहरा बनाए ऑपरेशन थियेटर से बाहर निकला और अपनी नाकामी का एलान किया. पचास–पचास हज़ार रुपये के चार इंजेक्शन भी उस शख़्स की ज़िंदगी वापस नहीं ला सके. अस्पताल और डॉक्टरों की सौदेबाजी यहीं नहीं रुकी. अभी उनके पास एक खाते-पीते घर के बंदे की वो लाश थी, जिसके कई सौदे होने बाकी थे.
इससे पहले भी मेरे उस एमआर मित्र ने डॉक्टरों के काले चेहरों का कई ब्योरा दिया था. मुझे कई नामी डॉक्टरों को दी गई रिश्वत के पेपर दिखाए थे. किसी डॉक्टर को कंपनी ने कार खरीद कर दी थी तो किसी को पूरे परिवार के साथ पांच सितारा होटल में रहने और खाने का पैकेज. कुछ डॉक्टर तो सीधे नकदी मांगते हैं. मेरे दोस्त ने उन डॉक्टरों को दी गई नकदी की रसीद भी दिखाई. मैंने उसकी सभी बातों पर यकीन भी किया. लेकिन ये एक ऐसा वाकया है जिस पर अब भी यकीन नहीं कर पा रहा हूं.
ये वाकया एक बड़े निजी अस्पताल से जुड़ा है, लेकिन उसका जिक्र इसलिए नहीं कर रहा हूं क्योंकि मैंने अपनी आंखों से इसे नहीं देखा और ना ही मेरे पास इसे साबित करने के लिए कोई पुख़्ता सुबूत हैं. इसलिए आप सबसे गुजारिश है कि इसे कहीं कोट मत करें. इसे मैं सिर्फ पढ़ने और सोचने के लिए लिख रहा हूं. साथ ही आप लोगों से ये जानने लिए क्या सच में बाज़ार और पैसे कमाने की हवस हमें ऐसे ख़तरनाक मोड़ पर ढकेल रही है?
तारीख - ११ जून, २००८
वक्त - ११.५०
दिन - बुधवार
जगह - दिल्ली
Wednesday, June 11, 2008
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8 comments:
दुनिया की रफ़्तार बढ़ रही है.. हमारे ओर आपके सोचने से क्या होगा.. जिसे सोचना है वो सोचते तो कुछ हो सकता था..
बाजारवाद को थप्पड़ मारने की जरूरत है . जबकि हो रहा है उल्टा .शिक्षित समाज भी अपने विवेक को इस्तेमाल कराने से चूक रहा है . रजनीश की किसी किताब मे लिखा था "बड़ा आदमी जब भी गलती करता है बड़ी गलती ही करता है " कुश जी से घोर असहमति है , बाज़ार के पीछे पीछे दौड़ कर हम सुधर नही सकते ,हम चलना नही चलाना चाह रहे है .
ऐसा हर धंदे मे होता है और हम सब इसमे शामिल हैं चोर भी हम चिल्लाने वाले भी हम, ज़ालिम भी हम मज़लूम भी हम क्योंकि हम इंसान हैं और हमेशा हमेशा के लिए ऐसे ही हैं।
http://shuaib.in/chittha
क्या सच में हम इतना गिर गए हैं? संवेदना का मर जन इसी को कहते हैं
देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान कितना बदल गया इंसान। मै बस यही कहना चाहूँगा। वैसे भाई तुम किस दुनिया मे रहते हो।
घटना सच और अतिश्योक्ति का मिश्रण लग रही है. कोई भी दवाई के चार इंजेक्शन साथ नहीं लगाये जा सकते.
दवा कम्पनियों और चिकित्सको में साँठ-गाँठ एक सच्चाई है.
अगर ये सच है तो ऐसे लोगों (डॉक्टर और कम्पनियाँ) को बक्शा नही जाना चाहिए।
यह तो खुले आम लूट और हैवानियत है. बहुत दुखद और अफसोसजनक.
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