Thursday, June 12, 2008

वो चांद-तारे और वो जुगनू पकड़ना...

कुछ दिन पहले मेरे छोटे भाई बहन तीस रुपये में मैजिक स्टार्स खरीद कर लाए। चमकते हुए चांद तारे एक चांद, कई ग्रह और ढेरों तारे। फिर उन्होंने उन चांद और तारों को एक एक कर कमरे की छत और दीवारों पर चिपका दिया। मैं रात में दफ़्तर से घर पहुंचा तो कमरे की छत और दीवार आकाश में तब्दील हो चुके थे। उस आकाश में ढेर सारे तारे टिमटिमा रहे थे। ये देख मैं मुस्कुरा उठा।

मुझे याद आया अपना बचपन। जब गांव की छत पर मैं सोया करता था। अंधेरिया रात में आसमान में तारे ही तारे नज़र आते। आकाशगंगा में हम तारों के समूह को पहचाने की कोशिश करते। वहीं मैंने सप्तऋषि, तीनडेढ़ियवा और ध्रुव तारे को पहचानना सीखा। आसमान में इन तारों की जगह से हल्का फुल्का वक़्त का अंदाजा लगाना सीखा। आज भी मैं सप्तऋषि और ध्रुवतारे को तुरंत पहचान लेता है। तीनदेढ़ियवा की जगह से वक्त का अंदाजा लगा लेता हूं।

तारों से भरे आसमान के अलावा हमने रात में जुगनू को जगमगाते देखा। दुआर पर मौजूद नीम के पेड़ पर सैकड़ों की संख्या में जुगनू जगमगाते थे। लगता कि तारे आसमान से नीचे उतर आए हैं। जुगनुओं के उस झुंड में से कुछ उड़ते हुए छत पर चले आते तो मैं उन्हें मुट्ठी में बंद कर लेता। वैसे ही जैसे कोई पिता बच्चे के जन्म पर उसे गोद में उठाता है। उत्सुकता और डर के मिले जुले भाव से। मेरी पूरी कोशिश होती की जुगनू के परों को कोई चोट नहीं पहुंचे। फिर अंगुलियों के बीच, मैं, रोशनी को घटते बढ़ते देखता। थोड़ी देर बाद मैं जब मुट्ठी खोलता तो वो जुगनू आसमान में उसी तरह भुक-भुक करते उड़ जाता जैसे कोई बच्चा स्कूल से छुट्टी मिलने पर घर की तरफ भागता है।

सिर्फ जुगनू ही क्यों? बारिश के मौसम में जब मेंढक टर्टराते हुए तालाब से निकल आते तो मैं उन्हें भी पकड़ लेता था। मेरी गिरफ़्त में आने से बचने के लिए मेंढक अपनी पूरी ताकत से छंलाग लगाता। एक के बाद एक कई छलांग। लेकिन मैं उसे भागने नहीं देता। मुट्ठी में बंद होने के बाद मेंढक की छटपटाहट बढ़ जाती। वो बाहर निकलने की पूरी कोशिश करता, थोड़ी देर बाद थक कर सरेंडर कर देता। फिर मौका देख मैं उस मेंढक को किसी साथी की गंजी में डाल देता और मेंढक के साथ उसकी बौखलाहट पर ताली बजाता, ठहाका लगाता। हालांकि ऐसा करने पर कई बार झगड़े की नौबत भी आ जाती थी, लेकिन दोस्ती के उन झगड़ों में भी एक अपनापन हुआ करता था।

बरसात में ही मैंने पालकी वाला नाव बनाना सीखा। उस नाव को दुआर पर जमे पानी में छोड़ देता। एक सींक और चींटा रख कर। फिर हम सब बच्चे वहां जुट जाते। जब चींटा बचने की कोशिश में सींक और नाव के एक छोर से दूसरे छोर पर भागता तो हम कहते कि चींटा नाव चला रहा है। अक्सर ही ऐसा होता कि कागज गलने पर नाव के साथ चींटा डूबने लगता और फिर हम उसे हाथ से पकड़ कर बाहर निकाल देते, उस अंदाज में जैसे कोई शहंशाह किसी गुनहगार को जीवन बख़्श रहा हो।

हमारी ज़िंदगी में ऐसे अनगिनत रंग थे। उन रंगों को समेटने बैठें तो ना जाने कितने पन्ने भर जाएं, मगर वो रंग ख़त्म नहीं हो। लेकिन आज के बच्चों की ज़िंदगी में उतने रंग नहीं है। उनकी दिनचर्या तो मशीनी अंदाज में चलती है। सुबह छह बजे जगने से लेकर शाम चार बजे तक वक़्त स्कूल के नाम। लौटने पर होमवर्क। उसके बाद एक से डेढ़ घंटा क्रिकेट और थोड़ी देर के लिए कार्टून नेटवर्क या डिस्करी चैनल। फिर दस बजे खाना खाकर सो जाना। कई बार लगता है कि पढ़ाई और रोजी रोटी के चक्कर में हमने बच्चों की ज़िंदगी से ना जाने कितने रंग छीन लिये हैं।

तारीख - १२ जून, २००८
समय - ०६.०५
दिन - बुधवार
जगह - दिल्ली

3 comments:

बालकिशन said...

बचपन की खूबसूरत वादियों मे ले गई आपकी ये पोस्ट.
सच बचपन के वे रंग अब भी तरसातें हैं.
बहुत ही उम्दा लिखा.

mamta said...

समरेन्द्र जी बहुत पुरानी यादों मे पहुँचा दिया आपने।
वैसे हम लोग तो तारों को गिनने का खेल करते थे की कौन कितने ज्यादा तारे गिन सकता है।
पर अफ़सोस कि आज कल तो लोगों ने घरों की छत पर सोना ही छोड़ दिया है।

समरेंद्र said...

ममता जी,
लोगों ने छतों पर सोना नहीं छोड़ दिया, बल्कि छतों से तारे अब नज़र ही नहीं आते हैं। दिल्ली में रहते हुए मैं तो तारे देखने के लिए तरस जाता हूं। यहां रात को भी प्रदूषण और रोशनी के चक्कर में इक्का दुक्का तारे ही नज़र आते हैं. सप्तऋषि वगैरह की तो बात ही छोड़ दें.