Saturday, June 28, 2008
ये सेहत की दुकान है
अस्पताल पहुंचने से पहले सुबह नौ बजे हमने फोन पर बात की थी। तब रिसेप्शन पर तैनात शख़्स ने बताया कि विप्लव जी के लिए कमरा नंबर १०१ तैयार है। वो जब चाहें आ कर अस्पताल में भर्ती हो सकते हैं। लेकिन वहां पहुंचने पर कमरा देने की जगह इंतजार करने को कहा गया। करीब एक घंटे बाद अस्पताल के एक कर्मचारी ने आकर साथ चलने को कहा। उसके साथ हम लिफ्ट में दाखिल हुए। थोड़ी देर में हम अस्पताल की तीसरी मंजिल पर थे। वहां वो कर्मचारी हमें रिकवरी रूम में ले गया, जहां दो बिस्तर लगे हुए थे। एक बिस्तर पर एक मरीज दर्द से कराह रहा था। कर्मचारी ने बताया कि खाली पड़ा दूसरा बिस्तर विप्लव जी के नाम है। हमने उससे कहा कि शायद उसे कोई गलतफहमी हो गई है विप्लव जी के लिए कमरा नंबर १०१ एलॉट हुआ है। कर्मचारी ने रजिस्टर खोल कर दिखा दिया कि नहीं रिकवरी रूम में बेड नंबर दो उनके नाम पर है और उस कमरे में उनके साथ कोई दूसरा दाखिल नहीं हो सकता।
हमने उसकी बात पर अमल से इनकार कर दिया और फिर रिसेप्शन पर चले आए। वहां पहुंच कर हमने कहा कि चार दिन पहले जब बुकिंग सिंगल रूम की कराई गई तो अब हमें रिकवरी रूम में क्यों भेजा जा रहा है? कर्मचारी बात टालने में लगे थे। शायद कोई मोटी आसामी मिल गई थी। गुस्से में हमने हेल्थ इंश्योरेंस क्लेम करने की प्रक्रिया रोकने को कहा। और वहीं अपने डॉक्टर का इंतज़ार करने लगे। अब सवा बाहर बज रहा था और एक स्ट्रेचर पर मरीज को बरामदे में लाया गया। उसके पैर में गंभीर चोट लगी हुई थी और देखने से ही लग रहा था कि उसे डॉक्टरी मदद की सख्त जरूरत है। लेकिन जिस डॉक्टर से उसका अप्वाइंटमेंट था उसके कमरे के बाहर बारह टाईवालों की लंबी लाइन लग चुकी थी। सब के सब भारी बैग हाथ में लिये हुए थे। अब मरीज के पास इंतजार के अलावा कोई और चारा नहीं था। तभी एक और एमआर वहां पहुंचा। उसने दरवाजे के बाहर खड़े कंपाउंडर से कहा दो-तीन के लॉट में डॉक्टर से मिलने दिया जाए, वर्ना इस तरह तो शाम हो जाएगी. एक के बाद एक एमआर भीतर जाते गए और मरीज बाहर इंतजार करता रहा.
सेहत के बाज़ार का ये घिनौना चेहरा देखकर बाबूजी कांप उठे. उन्होंने कहा कि चाहे कुछ भी हो अब यहां ऑपरेशन नहीं कराएंगे.
Sunday, June 22, 2008
तन सूखा मगर मन भीगा
ये बरसात भी यूं ही निकल जाएगी। इस बरसात भी गांव जाना नहीं हो सकेगा। मन तो काफी चाहता है लेकिन गांव जाने की भूमिका तैयार नहीं हो रही। मतलब इस बरसात भी मैं झिझरी नहीं खेल सकूंगा। गांव से सटी मगई नदी के किनारे नहीं बैठ सकूंगा। बारिश में कुछ चिकनी और मुलायम हुई परती की रेत पर चीका नहीं खेल सकूंगा। वो रेत जो कूदने पर भुरभुरा जाती, बिखर जाती मगर हमें चोट नहीं लगने देती। ये बरसात भी बीते कई साल की तरह यादों के सहारे काटनी होंगी। रोजी रोटी के नाम पर इस बरसात को भी खर्च करना होगा।
मुझे याद है कि बरसात में मगई नदी में उल्टी धारा बहने लगती थी। ये नदी एक छोर पर गंगा में जाकर मिल जाती थी। लेकिन जब गंगा में पानी कुछ ज्यादा उफान मारने लगता था तो मगई में धारा पलट जाती। फिर पानी हमारे गांव को चारों ओर से घेर लेता। कोई पंद्रह-बीस फुट ऊंचाई पर बसे गांव के चारों तरफ आधे किलोमीटर दूर तक पानी ही पानी दिखाई देता। परती के बाद बगीचे भी पानी में डूब जाते... लगता कि आम, सेमर, सिरफल, कटहल, बरगद, पाकड़ और पीपल सभी पानी पर उगे हों। उन्हीं पेड़ों के बीच मछलियां अपनी खुराक तलाशती और मछलियों के तौर पर इंसान अपनी खुराक। हम लोग भी बंटी (मछली पकड़ने का कांटा) लेकर अपने दुआर के छोर से मछली पकड़ने लगते। घंटों केचुआं कांटे में डाल कर बैठे रहते। किस्मत के हिसाब से रोहू, मांगुर, नैनी, कतला, झींगा ... उन काटों में फंस जातीं। प्रकृति बाढ़ के तौर पर अपनी ताकत के इजहार के साथ ज़िंदगी की नई धारा की रचना भी कर जाती थी। हम सभी उस जीवन धारा का भी लुत्फ उठाते। उससे जुड़ी मुश्किलों से दो-दो हाथ करते हुए।
गंगा का पानी हमें करीब एक से डेढ़ महीने तक इसी तरह घेरे रहता था। पानी घटने के इंतजार में हाथ पर हाथ धर कर बैठा तो रहा नहीं जा सकता। इसलिए लोगों ने बाढ़ के साथ कई तरह के एड्जस्टमेंट किये थे। खुद को पूरी तरह ढाल लिया था। हंसने खेलने के कई नए तरीके ईजाद किये थे। वैसे तो ये तरीके सदियों पुराने थे, लेकिन उनमें वक्त के साथ बदलाव भी हुआ था। ऐसा ही एक खेल था झिझरी। झिझरी की याद आते ही मैं रोमांचित हो उठता हूं। वो खेल ही कुछ ऐसा है, मानों एक बड़े क्रूज पर सवार होकर समंदर के बीच उतरना। क्रूज की ऊंची छत पर सवार होकर आसमान में तारे गिनने जैसा।
आमतौर पर झिझरी अंजोरिया रात में खेलते हैं। ज़्यादातर लोग अंजोरिया रात नहीं समझ सकेंगे। इसे हिंदी में पूर्णिमा और अंग्रेजी में फुल मून नाइट कहते हैं। तब चांद अपने पूरे शबाब पर होता है। अंजोरिया रात में बाढ़ के पानी में चांद कुछ इस तरह अपनी रोशनी घोल देता मानो वो भी आसमान से उतरकर नदी जल से अठखेलियां करना चाहता हो और ये चाहता हो कि संसार उसकी खूबसूरती को पानी में निहार ले। ऐसे की नज़रें ठहर जाती हैं। उसी अंजोरिया रात में नाव पर चौकी रख दी जाती। टॉर्च, लालटेन, ढोल, मझीरे लेकर लोग सवार हो जाते। भगवान राम से प्रार्थना करते हुए, अपनी सलामती की दुआ मांगते हुए।
सिकिया चीरय चिरी
नैया सीरी जवलों
राम सागरवा बांध ना
कवना घाट उतरे हो परदेसिया
राम सागरवा बांध ना
((भगवान इस नाव की हिफाजत करना। लकड़ी को चीर चीर कर बनाई गई ये नाव सागर में चली जा रही है। इस पर सवार परदेसी को किसी घाट पर उतरना है))
...... सुरों में ही इसका जवाब भी दिया जाता
सिकिया चीरय चिरी
नैया सीरी जवलों
राम सागरवा बांध ना
राम घाट उतरे हो परदेसिया
राम सागरवा बांध ना
((भगवान इस नाव की हिफाजत करना। लकड़ी को चीर चीर कर बनाई गई ये नाव सागर में चली जा रही है। इस पर सवार परदेसी राम घाट पर उतरेगा।))
हो सकता हो कि सुरों से सजे उस सवाल जवाब का मतलब मैं ठीक से नहीं समझा सका हूं। लेकिन उसी प्रार्थना के साथ लोग नाव को लहरों में ढकेल देते और जश्न शुरू हो जाता। बीच धारा में ले जाकर नाविक लंगर डालते और नाव लहरों पर झूलने लगती ... ढोल, मझीरे से निकले सुर लहरों में घुलने लगते ... रामायण की चौपाइयां गायी जाने लगती... बीच बीच में जोरदार आवाज़ होती... बोलो सियापति रामचंद्र जी की जै ... एक नई तरंग पैदा होती जो नाव पर होते हुए भी सबको भीगो कर चली जाती ... तन सूखा मगर मन प्रेम और भक्ति रस में डूबा हुआ। हर कोने में चौकी पर नाचते-झूमते लोग और अलग-अलग सुर ... वो संगीत और नाच आज भी जेहन में ताजा है। उसके बारे में लिखते हुए चेहरे पर मुस्कान खिल आई है। मैं अपने बचपन में लौट चुका हूं और कुछ पल के लिए ही सही, उसे जीना चाहता हूं।
तारीख - २२ जून, २००८
दिन - रविवार, वक़्त - १६.१०, जगह - दिल्ली
Saturday, June 21, 2008
मुझसे नई तकदीर ले जाइये
मैं शब्दों का कारोबारी हूं,
मेरे पास हर तरह के शब्द हैं.
पैसे दीजिये,
जरूरत के शब्द ले जाइये.
अगर आपने किसी का क़त्ल किया है,
मगर क़ातिल कहलाने से बचना चाहते हैं,
तो मेरे पास आइये,
मैं क़त्ल को हादसा बता दूंगा.
यकीन मानिये,
शब्दों में बड़ी ताकत होती है,
सारा खेल शब्दों का है,
शब्दों से ही दुनिया चलती है.
मेरी और आपकी बिसात क्या,
शब्द बदलने पर देशों की तकदीर बदल जाती है.
मैं उन्हीं शब्दों को कारोबार करता हूं,
झूठ को सच बनाने के फन में माहिर हूं.
बस आप पैसे फेंकिये,
मुझसे अपनी जरूरत के शब्द,
और अपनी नई तकदीर ले जाइये।
Tuesday, June 17, 2008
शब्द धोखा दे गए
पहला मुद्दा - गीत भाई के ब्लॉग पर एक दिन पहले दुन्या की कविता “कल मैंने एक देश खो दिया” पढ़ी। लगा ये हक़ीक़त मेरी भी है। अपना देस तो मैं भी खो चुका हूं। पूरा नहीं, मगर आधा जरूर। दुन्या के दर्द के दामन को थाम कर बहुत कुछ लिखने का मन कर रहा हैं, लेकिन काफी मशक्कत के बाद भी विचारों को एक धागे में पिरो नहीं सका।
दूसरा मुद्दा - सीबीआई के निदेशक विजय शंकर की मीडिया को हद में रहने की हिदायत। एक ऐसी जांच एजेंसी का मुखिया अब मीडिया को नसीहत दे रहा था जो आज तक अपराधियों को बचाने का काम करती आई है। उसकी इतनी हिम्मत हुई तो इसके लिए कुछ हद तक हम भी जिम्मेदार हैं। मुद्दा काफी बड़ा है और इस पर लिखने को काफी कुछ है, लेकिन कुछ ठोस लिख नहीं सका।
तीसरा मुद्दा - दिल्ली और मुंबई में दो बड़े हादसे हुए। एक झटके में कई ज़िंदगियां, कई परिवार तबाह हो गए और दोनों ही हादसों के लिए शराब जिम्मेदार है। शराब जिसके दंश को मैंने डेढ़ दशक तक भोगा और शराब छोड़ने के बाद भी उसी दंश को भोग रहा हूं। मुद्दा गंभीर है। लिखने का भी काफी मन था। लेकिन लिख नहीं सका।
ऐसा अक्सर होता है। दफ्तर में खबरों के बोझ तले दबे होने के बाद भी जो शब्द साथ नहीं छोड़ते, वही शब्द मन की बात लिखते वक्त रिश्ता तोड़ लेते हैं। परायों सा बर्ताव करने लगते हैं। इस कदर कि दिल कुछ सोचता है, दिमाग कुछ और अंगुलियां कुछ लिखती हैं। आज भी ऐसा ही हुआ। मैं कुछ सार्थक लिखना चाहता था, लेकिन शब्दों ने धोखा दे दिया। आखिर में कुछ मन लायक नहीं लिख सकने के अहसास के साथ कंप्यूटर बंद कर रहा हूं।
तारीख – १७ जून, २००८ (मंगलवार)
वक़्त – २.१०
जगह - दिल्ली
Sunday, June 15, 2008
कभी रात में भी इंडिया गेट जाइये
आज शाम मैं भी वहां गया। पूरे परिवार के साथ। गांव से छह- सात बच्चे आए हुए हैं। वो भी साथ में इंडिया गेट गए। हम सभी यही कोई ढाई घंटा वहां रहे। ये ढाई घंटे बड़ी जल्दी निकल गए। आज मैंने बच्चों को बायोस्कोप दिखाया। मैंने उनसे पूछा कि कभी तुमने बायोस्कोप देखा है क्या? उन्होंने बताया नहीं। बताइये गांव से आए हैं, लेकिन बायोस्कोप कभी नहीं देखा। ये भी कोई बात है। मैंने उनसे कहा इंडिया गेट पर बायोस्कोप देखो। ये हमेशा याद रहेगा। कभी कोई पूछेगा कि बायोस्कोप देखा है तो कहना इंडिया गेट पर देखा है। हमने वहां भेल-पूरी का लुत्फ उठाया और आइस्क्रीम का भी। हालांकि यहां की भेल-पूरी में मंबुई के जुहू बीच वाला चटपटापन नहीं था। लेकिन काफी दिनों बाद भेलपूरी खाने पर मजा आ गया।
शाम में इंडिया गेट मैं कई बार जा चुका हूं। हमारा आठ दोस्तों का ग्रुप था। मैं, अरविंद, राजेश कपूर, दीपांकर, सुधीर शर्मा, सुधीर कुमार, मनीष गोगिया और विकास चावला। हम आठ दोस्तों के अलावा एक मेरा बचपन का मित्र नरेंद्र दानिया भी हमारे साथ होता। कुल नौ लोगों की टोली इंडिया गेट जाती। कार्यक्रम तभी बनता जब किसी का घर खाली हो। इंडिया गेट में शाम बिताने के बाद उसी खाली घर को आबाद करने चले जाते। फिर खूब धमा-चौकड़ी मचाते। भोर तक पार्टी चलती रहती। आज इंडिया गेट जाने पर चंद पलों के लिए वो सभी यादें ताजा हो गईं।
तब और अब के बीच काफी अंतर आ गया है। यहां पहले की तुलना में कुछ ज्यादा लोग जुटने लगे हैं। जुटें भी क्यों नहीं? देश के राजधानी दिल्ली में ऐसी शायद ही कोई खुली जगह है जहां आप बिना किसी झिझक और डर के रात ग्यारह-बारह बजे तक परिवार के साथ रह सकें। वर्ना तो हसीन शाम बिताने के नाम पर यहां सिर्फ यही हो सकता है कि आप किसी सिनेमा या नाटक का टिकट बुक कर लें और उसके बाद किसी बड़े रेस्तरां में खाना खा लें। इंडिया गेट के अलावा कहीं और ज्यादा रात तक खुले में घूमने पर हमेशा खटका लगा रहता है कि मनचलो की कोई टोली आपको तनाव देते हुए गुजर जाएगी।
सुरक्षा के अहसास के मामले में देश की राजधानी दूसरे महानगरों की तुलना में बहुत गरीब है। मुंबई में तो मैं दो साल रहा हूं। मैंने देखा है कि वहां एक साधारण कमाई वाले घर के लोग भी दिल्ली की तुलना में ज्यादा अच्छी जिंदगी जीते हैं। वहां आज भी मीरा रोड और भइंदर में कम किराए पर मकान मिल जाएंगे। फिर शाम को दफ्तर से लौटने के बाद जुहू बीच, बांद्रा, वर्ली सी फेस और मरीन ड्राइव ... ऐसी ढेरों जगहें जहां आप बीवी, बच्चों के साथ जा सकते हैं। रेत पर बच्चों को खेलते, घरौंदा बनाते, कूदते-फांदते देख सकते हैं। इन सभी जगहों पर आधी रात तक रौनक बनी रहती है। यहां गाड़ी वाले भी जाते हैं और बिना गाड़ी वाले भी। जिनके पास कार नहीं है वो लोकल में बैठ कर जाते हैं और साल में इक्का-दुक्का घटनाओं को छोड़ दीजिये तो कोई वारदात नहीं होती।
अरे मैं भी कहां भटक गया। दिल्ली और मुंबई के बीच क्या अंतर है इस पर मैं कभी और विस्तार से लिखूंगा। फिलहाल तो यही कहना है कि अगर आप दिल्ली में रहते हैं तो किसी शाम इंडिया गेट जरूर जाइये। अगर दिल्ली आते हैं तो एक शाम इंडिया गेट पर बिताने के इरादे के साथ आइयेगा। नंवबर से फरवरी के बीच की कड़ाके के सर्दी को छोड़ दे तो यहां की रौनक भी देखने लायक होती है।
तारीख - १५ जून, २००८
वक़्त - २३.५०
जगह - दिल्ली
Saturday, June 14, 2008
फिर वही सवाल आप सभी से
१) क्या किसी छात्रा (आरुषि) की हत्या दिलचस्प हो सकती है?
२) क्या उस हत्या की मंशा दिलचस्प हो सकती है?
३) क्या उस हत्या पर बहस दिलचस्प हो सकती है?
उड़न तस्तरी जी मैं थोड़ा खुलासा करता हूं। दरअसल मैंने एक टीवी चैनल पर दो दिग्गज पत्रकारों को सीबीआई के पूर्व निदेशक से बात करते सुना और देखा। वो दोनों दिग्गज पत्रकार चटखारे लेकर आरुषि हत्याकांड पर बात कर रहे थे। उसमें कई बार उन दोनों दिग्गज पत्रकारों ने मजेदार और दिलचस्प शब्दों का इस्तेमाल किया। मुस्कुराते हुए। हाथ मलते हुए। मैं इस समय क़त्ल और क़ातिल कितने तरह के होते हैं और किस मानसिकता में पहुंच कर कोई शख़्स क़ातिल बनता है – इन विषयों पर एक राय बनाने की कोशिश कर रहा हूं। उसी सिलसिले में मैंने आपसे सभी से ये चंद सवाल किये हैं। अगर हो सके तो अपनी राय दें। आपकी राय मुझे किसी नतीजे पर पहुंचने में मदद करेगी।
धन्यवाद।
Thursday, June 12, 2008
वो चांद-तारे और वो जुगनू पकड़ना...
मुझे याद आया अपना बचपन। जब गांव की छत पर मैं सोया करता था। अंधेरिया रात में आसमान में तारे ही तारे नज़र आते। आकाशगंगा में हम तारों के समूह को पहचाने की कोशिश करते। वहीं मैंने सप्तऋषि, तीनडेढ़ियवा और ध्रुव तारे को पहचानना सीखा। आसमान में इन तारों की जगह से हल्का फुल्का वक़्त का अंदाजा लगाना सीखा। आज भी मैं सप्तऋषि और ध्रुवतारे को तुरंत पहचान लेता है। तीनदेढ़ियवा की जगह से वक्त का अंदाजा लगा लेता हूं।
तारों से भरे आसमान के अलावा हमने रात में जुगनू को जगमगाते देखा। दुआर पर मौजूद नीम के पेड़ पर सैकड़ों की संख्या में जुगनू जगमगाते थे। लगता कि तारे आसमान से नीचे उतर आए हैं। जुगनुओं के उस झुंड में से कुछ उड़ते हुए छत पर चले आते तो मैं उन्हें मुट्ठी में बंद कर लेता। वैसे ही जैसे कोई पिता बच्चे के जन्म पर उसे गोद में उठाता है। उत्सुकता और डर के मिले जुले भाव से। मेरी पूरी कोशिश होती की जुगनू के परों को कोई चोट नहीं पहुंचे। फिर अंगुलियों के बीच, मैं, रोशनी को घटते बढ़ते देखता। थोड़ी देर बाद मैं जब मुट्ठी खोलता तो वो जुगनू आसमान में उसी तरह भुक-भुक करते उड़ जाता जैसे कोई बच्चा स्कूल से छुट्टी मिलने पर घर की तरफ भागता है।
सिर्फ जुगनू ही क्यों? बारिश के मौसम में जब मेंढक टर्टराते हुए तालाब से निकल आते तो मैं उन्हें भी पकड़ लेता था। मेरी गिरफ़्त में आने से बचने के लिए मेंढक अपनी पूरी ताकत से छंलाग लगाता। एक के बाद एक कई छलांग। लेकिन मैं उसे भागने नहीं देता। मुट्ठी में बंद होने के बाद मेंढक की छटपटाहट बढ़ जाती। वो बाहर निकलने की पूरी कोशिश करता, थोड़ी देर बाद थक कर सरेंडर कर देता। फिर मौका देख मैं उस मेंढक को किसी साथी की गंजी में डाल देता और मेंढक के साथ उसकी बौखलाहट पर ताली बजाता, ठहाका लगाता। हालांकि ऐसा करने पर कई बार झगड़े की नौबत भी आ जाती थी, लेकिन दोस्ती के उन झगड़ों में भी एक अपनापन हुआ करता था।
बरसात में ही मैंने पालकी वाला नाव बनाना सीखा। उस नाव को दुआर पर जमे पानी में छोड़ देता। एक सींक और चींटा रख कर। फिर हम सब बच्चे वहां जुट जाते। जब चींटा बचने की कोशिश में सींक और नाव के एक छोर से दूसरे छोर पर भागता तो हम कहते कि चींटा नाव चला रहा है। अक्सर ही ऐसा होता कि कागज गलने पर नाव के साथ चींटा डूबने लगता और फिर हम उसे हाथ से पकड़ कर बाहर निकाल देते, उस अंदाज में जैसे कोई शहंशाह किसी गुनहगार को जीवन बख़्श रहा हो।
हमारी ज़िंदगी में ऐसे अनगिनत रंग थे। उन रंगों को समेटने बैठें तो ना जाने कितने पन्ने भर जाएं, मगर वो रंग ख़त्म नहीं हो। लेकिन आज के बच्चों की ज़िंदगी में उतने रंग नहीं है। उनकी दिनचर्या तो मशीनी अंदाज में चलती है। सुबह छह बजे जगने से लेकर शाम चार बजे तक वक़्त स्कूल के नाम। लौटने पर होमवर्क। उसके बाद एक से डेढ़ घंटा क्रिकेट और थोड़ी देर के लिए कार्टून नेटवर्क या डिस्करी चैनल। फिर दस बजे खाना खाकर सो जाना। कई बार लगता है कि पढ़ाई और रोजी रोटी के चक्कर में हमने बच्चों की ज़िंदगी से ना जाने कितने रंग छीन लिये हैं।
तारीख - १२ जून, २००८
समय - ०६.०५
दिन - बुधवार
जगह - दिल्ली
Wednesday, June 11, 2008
क्या आप इस पर यकीन करेंगे?
हम सब जानते हैं कि दवा कंपनियां डॉक्टरों को रिश्वत देती हैं अपनी दवा के प्रचार के लिए और उसकी बिक्री बढ़ाने के लिए. ऐसी ही एक बड़ी कंपनी ज़िंदगी बचाने के लिए इंजेक्शन तैयार करती है. उस इंजेक्शन की क़ीमत पचास हजार रुपये के करीब है.
एक दिन एक शख्स हादसे का शिकार हुआ. घरवाले उसे तुरंत निजी अस्पताल ले गए. वहां पहुंचने के चंद मिनट बाद उस शख्स ने दम तोड़ दिया. लेकिन डॉक्टर उसे ऑपरेशन थियेटर ले गए. थोड़ी देर बाद एक डॉक्टर बाहर निकला और उसने मरीज़ के घरवालों को एक पर्ची दी. उस पर उसी महंगे इंजेक्शन का नाम लिखा हुआ था. डॉक्टर ने कहा कि मरीज़ की जान बच सकती है अगर वो चार इंजेक्शन ले आएं. घरवाले पैसे लेकर अस्पताल पहुंचे थे. उन्होंने तुरंत चार इंजेक्शन मंगा दिये. करीब तीन घंटे बाद वही डॉक्टर मायूस सा चेहरा बनाए ऑपरेशन थियेटर से बाहर निकला और अपनी नाकामी का एलान किया. पचास–पचास हज़ार रुपये के चार इंजेक्शन भी उस शख़्स की ज़िंदगी वापस नहीं ला सके. अस्पताल और डॉक्टरों की सौदेबाजी यहीं नहीं रुकी. अभी उनके पास एक खाते-पीते घर के बंदे की वो लाश थी, जिसके कई सौदे होने बाकी थे.
इससे पहले भी मेरे उस एमआर मित्र ने डॉक्टरों के काले चेहरों का कई ब्योरा दिया था. मुझे कई नामी डॉक्टरों को दी गई रिश्वत के पेपर दिखाए थे. किसी डॉक्टर को कंपनी ने कार खरीद कर दी थी तो किसी को पूरे परिवार के साथ पांच सितारा होटल में रहने और खाने का पैकेज. कुछ डॉक्टर तो सीधे नकदी मांगते हैं. मेरे दोस्त ने उन डॉक्टरों को दी गई नकदी की रसीद भी दिखाई. मैंने उसकी सभी बातों पर यकीन भी किया. लेकिन ये एक ऐसा वाकया है जिस पर अब भी यकीन नहीं कर पा रहा हूं.
ये वाकया एक बड़े निजी अस्पताल से जुड़ा है, लेकिन उसका जिक्र इसलिए नहीं कर रहा हूं क्योंकि मैंने अपनी आंखों से इसे नहीं देखा और ना ही मेरे पास इसे साबित करने के लिए कोई पुख़्ता सुबूत हैं. इसलिए आप सबसे गुजारिश है कि इसे कहीं कोट मत करें. इसे मैं सिर्फ पढ़ने और सोचने के लिए लिख रहा हूं. साथ ही आप लोगों से ये जानने लिए क्या सच में बाज़ार और पैसे कमाने की हवस हमें ऐसे ख़तरनाक मोड़ पर ढकेल रही है?
तारीख - ११ जून, २००८
वक्त - ११.५०
दिन - बुधवार
जगह - दिल्ली
Tuesday, June 10, 2008
अजमेर जाने पर पुष्कर जरूर जाना
अजेमर में ख़्वाजा से आशीर्वाद लेने के बाद मैं और अभिषेक पुष्कर की ओर चल पड़े। अजमेर से पुष्कर पहुंचने में आधे घंटे और आठ रुपये लगते हैं। बस अड्डे से हर पंद्रह मिनट पर बस खुलती है. आमतौर पर बस खाली रहती है और आपको बैठने की जगह मिल जाएगी. हम दोनों को भी कोई दिक्कत नहीं हुई. हम दोनों टिकट कटा कर बस में सवार हुए और थोड़ी देर बाद बस खुल गई. अरावली की पहाड़ियों से होकर गुजरता ये रास्ता काफी हसीन है. जैसे जैसे बस चढ़ाई चढ़ती है, खिड़की से अजमेर की खूबसूरती नज़र आने लगती है. चारों तरफ पहाड़ियों से घिरा अजमेर काफी सुंदर है. बीच में एक बड़ी झील है और ऊंचाई से वो बेहद आकर्षक लगती है. इन्हीं दृश्यों का लुत्फ उठाते हुए हम शाम छह बजे के करीब पुष्कर पहुंच गए. वहां पर हमारे मित्र दिनेश पाराशर पहले से ही इंतजार कर रहे थे. दिनेश पेशे से पत्रकार हैं लेकिन संगीत के उपासक भी हैं. पत्रकारिता से समय मिलने पर बच्चों को शास्त्रीय संगीत सिखाते हैं. उनकी अपनी मंडली है और वो मंडली बेहतरीन है.
पुष्कर ब्रम्हा की धरती है। मान्यता है कि ब्रम्हा का हंस चोंच में कमल दबाए उड़ रहा था. उसकी चोंच से कमल यहीं गिर गया. इसलिए इस जगह का नाम पड़ा पुष्कर और यहां ब्रम्हा ने आकर महायज्ञ किया. पुष्कर ब्रम्हा का तीर्थ है, लेकिन यहां ब्रम्हा के मूर्तरूप की पूजा नहीं होती है बल्कि ब्रम्ह सरोवर की पूजा होती है ... पुष्कर की पूजा होती है. यहां पहुंचने पर कोई भी श्रद्धालु मंदिर में यज्ञ नहीं करता बल्कि ब्रम्ह सरोवर के किनारे यज्ञ करता है।
ब्रम्ह सरोवर के चारों ओर ५२ घाट हैं और हर घाट पर मंदिर हैं. चारों तरफ से अरावली का घेरा और उसके ठीक बीच में ब्रम्ह सरोवर ... सुबह और शाम इस जगह की सुंदरता मन मोह लेती है. पुष्कर की एक और खासियत है. यहां गुलाब की खेती होती है. सुर्ख लाल गुलाब की खेती. ये गुलाब हमारी संस्कृति की पहचान भी हैं. उगते पुष्कर में हैं और चढ़ाए जाते हैं अजमेर में ख़्वाजा की दरगाह पर. गुलाब की खुशबू पुष्कर की खूबसूरती को और बढ़ा देती है. शायद यही वजह है कि अगस्त सितंबर में बड़ी संख्या में विदेशी सैलानी यहां जुटने लगते हैं और मार्च तक उनका आना-जाना लगा रहता है.
मैं और अभिषेक भी दिनेश के साथ होटल पहुंचे। नहा धो कर सात बजे मैं और अभिषेक ब्रम्ह सरोवर का दर्शन करने चल दिये, जबकि दिनेश होटल से ही सटे अपने संगीत स्कूल में शिष्यों को रियाज कराने लगे। ब्रम्ह सरोवर पर हम करीब सवा घंटा रहे. एक दिन पहले वहां जोरदार बारिश हुई और पहाड़ों से मिट्टी को साथ लिए पानी सरोवर में आ गया, इसलिए ये सरोवर भरा पूरा लग रहा था. यहां सरोवर में पैर डाले घाट पर बैठने का सुख ही अलग है. ये कुछ कुछ काशी की याद दिलाता है. सरोवर के दर्शन के बाद हम भगवान ब्रम्हा के मंदिर गए और उनका आशीर्वाद लिया.
रात नौ बजे हम दिनेश के संगीत स्कूल पहुंचे. वो और उनकी मंडली रियाज में जुटी थी. भजन कीर्तन जारी था. मैंने और अभिषेक ने इस संगीत साधना में रुकावट डालना ठीक नहीं समझा और चुपचाप कमरे के बाहर मौजूद कुर्सियों पर बैठ गए. हमें देख दिनेश बीच बीच में राग का ब्योरा देते जाते और गाते जाते. दिनेश को देख कर यही लगा कि हमसे काफी बेहतर है उनका जीवन. कम से कम वो अपने हिसाब से जी रहे हैं. हम लोग तो महानगर में फंस कर रह गए हैं. हमारी ज़िंदगी पर हमसे ज़्यादा दफ़्तर का नियंत्रण है. अपने खाते की छुट्टी लेने से पहले सोचना पड़ता है. सोचो तो तनाव और बिना सोचे छुट्टी ले लेने पर भी तनाव. ऐसा नहीं कि दिनेश इस तनाव से पूरी तरह मुक्त हैं, लेकिन इतना तय है कि उनकी स्थिति हमसे बेहतर जरूर है. करीब एक घंटे बाद दिनेश ने रियाज पूरा किया और हम दोनों ने तालियां बजा कर उनका सम्मान किया.
अब रात के दस बज चुके थे और भूख काफी तेज लगी थी. हम लोग होटल की छत पर बने रेस्तरां में खाने पहुंचे. वहां से ब्रम्ह सरोवर का दिव्य रूप दिखाई दिया. सभी ५२ घाटों पर रोशनी और सरोवर में उस रोशनी की हल्की छाया ... ऊंचाई से देखने पर सबकुछ अदभुत लग रहा था. फिर हमारा ध्यान होटल के पीछे की दो पहाड़ियों ने खींचा. उन दोनों पहाड़ियों पर रोशनी दिखाई दे रही थी. हमने दिनेश से पूछा कि वहां क्या है? दिनेश ने बताया कि एक तरफ देवी सावित्री का मंदिर है और दूसरी तरफ पाप मोचनी माता का मंदिर है. हमने वहां जाने की इच्छा जाहिर की, लेकिन दिनेश ने बताया कि इसके लिए एक दिन निकालना होगा। दोनों पुष्कर के दो छोर पर हैं और हर मंदिर के दर्शन में आधा दिन लग जाएगा. ये सुन कर हमने देवी दर्शन का इरादा छोड़ दिया. इतना जरूर तय हुआ कि अगली बार जब भी पुष्कर आएंगे, वहां भी जरूर चलेंगे.
तारीख – १० जून, २००८
समय – ०९.००
दिन – मंगलवार
जगह - दिल्ली
Sunday, June 8, 2008
तुमसे क्या मांगना, क्या नहीं मांगना...
तय कार्यक्रम के मुताबिक मैं और अभिषेक सुबह पांच बजे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच गए। अजमेर शताब्दी ६।१० पर यहीं से खुलती है। लेकिन वहां टिकट काउंटर पर तैनात बाबू ने बताया कि गुर्जर आंदोलन के कारण ट्रेन रद्द है। गुर्जरों ने रेल की पटरियां उखाड़ दी हैं और महिलाएं ट्रैक पर बैठी हैं। जब तक हालात काबू में नहीं आते और पटरियों की मरम्मत नहीं हो जाती, ट्रेन नहीं चलेगी. मतलब साफ था या तो हम अपना कार्यक्रम कुछ दिनों के लिए टालें या फिर कोई और रास्ता पकड़ें. हमने दूसरा रास्ता पकड़ने का फैसला किया और बीकानेर हाउस की तरफ बढ़ गए.
बीकानेर हाउस पहुंचने पर पता चला कि अजमेर के लिए सीधी बस दोपहर में है। जबकि जयपुर के लिए बस अगले पांच मिनट में खुलेगी. सीट भी खाली है. हमने तुरंत टिकट कटाया और बस में सवार हो गए. हालांकि पूरे रास्ते ये डर बना रहा कि कहीं आंदोलन कर रहे गुर्जर हाइवे जाम ना कर दें. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. हम करीब साढ़े बारह बजे जयपुर और वहां से साढ़े तीन बजे अजमेर पहुंच गए. दोपहर तीन से चार बजे तक दरगाह की साफ-सफाई होती है और दरवाजे बंद रहते हैं. इसलिए हमारे पास आधे घंटे का वक्त था. भूख लग रही थी और मौके का फायदा उठा कर हम एक रेस्तरां में पेट पूजा के लिए बैठ गए.
ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के जन्म को लेकर कोई पुख़्ता जानकारी नहीं है। कुछ जानकारों के मुताबिक उनका जन्म बारहवीं शताब्दी में ईरान के सिजिस्तान में हुआ तो कुछ के मुताबिक वो इस्फहां में जन्मे. कुछ ऐसे भी हैं जो दावा करते हैं कि ख़्वाजा का घर कांधार में था. जन्म की जगह को लेकर विवाद भले हो, लेकिन ज्यादातर इतिहासकार एक बात पर सहमत हैं. ख़्वाजा का बचपन से ही धर्म कर्म में झुकाव था. उनका व्यक्तित्व करिश्माई था. एक दिन शेख इब्राहिम कंदोजी उनके घर पहुंचे. उस समय ख़्वाजा पौधों को पानी पटा रहे थे. कंदोजी ने ख़्वाजा के मन के भीतर झांक कर देखा तो उनकी आंखें चमक उठीं. शेख इब्राहिम ने ख़्वाजा के करिश्माई व्यक्तित्व को भांप लिया. कंदोजी के ही प्रभाव में ख़्वाजा ने घर बार बेच दिया और उससे मिले पैसे को दान में दे दिया। उसके बाद वो दुनिया की सैर पर निकल पड़े। मस्ती वाले सैर नहीं, बल्कि इन्सांपरस्ती के सैर पर. वो दिल्ली होते हुए अजमेर पहुंचे और वहीं बस गए. अजमेर में ही उन्होंने भारत में सूफी की चिश्ती परंपरा की नींव रखी. बताया जाता है कि ख़्वाजा ने ९६ साल की उम्र में १२३६ के करीब अपना दैहिक चोला उतार फेंका. और आत्मा...वो पाक रूह तो आज भी लोगों को अपने पास खींच लाती है और जो जा नहीं पाते, वो भी अपने अंतस में उसे महसूस करते हैं.
इतिहासकारों की माने तो ख़्वाजा के ज़िंदा रहते उनकी शख्सियत के बारे में बहुत कम लोगों को ही पता था। लेकिन उनके जाने के बाद चर्चा होने लगी. उनका करिश्मा दूर दूर तक फैलने लगा. किस्से सुनाए जाने लगे और फकीर से लेकर शहंशाह तक उनके दर पर पहुंचने लगे. १६वीं शताब्दी में हिंदुस्तान के शहंशाह अकबर उनके सबसे बड़े भक्तों में से एक थे. उन्होंने कई बार अजमेर तक पैदल यात्रा की. हर बड़ी जीत के बाद अकबर ख़्वाजा के दरबार में हाजिरी बजाते थे. उन्हीं के शासन काल में अजमेर सबसे बड़े सूफी संत की दरगाह के तौर पर स्थापित हुआ. तब से यही मान्यता है कि जो कोई सच्चे मन से ख़्वाजा के दरबार में पहुंचता है उसकी मन्नत पूरी होती है.
सूफी कहानी तो हरी अनंत हरी कथा अनंता की तरह अनंत है और हम भी उस कहानी की हकीकत वाले दरबार में पहुंच चुके थे। शाम के चार बज चुके थे और गरीब नवाज का दर भी खुल चुका था। हल्की पेट पूजा के बाद हम भी जियारत के लिए तैयार थे. हमारे कदम दरगाह की तरफ बढ़ गए. वहां पहुंचने पर बहुत कुछ बदला-बदला सा दिखा. धमाकों के बाद सुरक्षा बढ़ा दी गई है. पूजा के सामान के अलावा कुछ भी ले जाना मुमकिन नहीं. अब आप कैमरा भीतर नहीं ले जा सकते हैं. सादी वर्दी में पुलिस के जवान दरगाह में तैनात हैं. वो हर आने-जाने वाले पर नज़र रखते हैं. मुझे अच्छी तरह याद है कि पिछली बार ऐसा कुछ नहीं था. गरीब नवाज के दरबार में मैं और अमिय मोहन बेधड़क दाखिल हुए थे. किसी भक्त पर कोई पाबंदी नहीं थी. लेकिन आतंकियों के हमलों ने काफी कुछ बदल दिया है. इन बदलावों पर गौर करते हुए हम अपनी मंजिल तक पहुंच गए. अब हमारे सामने ख़्वाजा थे और हमारी ही तरह उनके ढेरों भक्त.
दिल्ली से अजमेर के रास्ते में मैं मुरादों की फेहरिस्त तैयार करते गया था. अपने लिये और दोस्तों के लिए भी. उन मुरादों को लिखने बैठता तो एकाध पन्ने भर जाते. लेकिन ख़्वाजा की दरगाह में कदम रखते ही सभी इच्छाएं जेहन से एक के बाद एक गायब होने लगीं. दिमाग पर मेरा नियंत्रण खत्म होने लगा. ऐसा लगा कि सबकुछ पहले से निर्धारित प्रक्रिया के तहत हो रहा है. पिछली बार भी यही हुआ था. मैं काफी कुछ मांगने के इरादे से वहां पहुंचा था, लेकिन जब खादिम ने पवित्र चादर मेरे सिर पर रखी और ख़्वाजा से मेरी मुरादें पूरी करने की गुजारिश तो मैं खामोश रह गया. यही नहीं, मुझे अच्छी तरह याद है कि दरगाह में दाखिल होते वक्त मैं गायत्री मंत्र बुदबुदा रहा था. धर्म कर्म के नाम पर बस यही एक मंत्र मुझे याद है. मंदिर हो, गुरद्वारा हो या फिर दरगाह, मैं हर जगह हाथ जोड़ कर यही मंत्र बुदबुदाने लगता हूं. सामने से जब कोई एंबुलेंस सायरन बजाते हुए गुजरता है तो भी यही मंत्र पढ़ने लगता हूं और उसके बाद दिल से यही दुआ निकलती है कि भगवान उस बंदे का ख्याल रखना. ख़्वाजा के दरबार में इस बार भी वही हुआ... मुझे काफी कुछ मांगना था, लेकिन आखिर में यही मांग सका कि गरीब नवाज, अपने बंदों का ख्याल रखना.
(जारी है...)
तारीख – 8 जून, २००८
समय – 11.30
(दिल्ली)
Saturday, June 7, 2008
आस्था का सफ़र
इसके बाद मैं भी तुरंत तैयार हो कर घर से चल दिया. अभी गाड़ी में बैठा ही था कि विप्लव दा का फिर फोन आया. उन्होंने कहा जल्दीबाजी मत करना. कहते हैं दूध का जला छाछ भी फूंक कर पीता है. शायद विप्लव दा को लग रहा था कि हादसे की खबर सुन कर कहीं मैं गाड़ी हड़बड़ी में ना चलाने लगूं. मैंने उनसे इत्मिनान रखने को कहा और उनके घर की ओर चल पड़ा.
मैं पूरी तरह सजग होकर गाड़ी चला रहा था, लेकिन विप्लव दा की आशंका आशंका सच निकली. नोएडा में सेक्टर १९-२० की पुलिस चौकी के पास पुलिस के ट्रक ने मेरी गाड़ी को टक्कर मार दी. रेड लाइट पर ड्राइवर बिना पीछे देखे ट्रक बैक करने लगा. हॉर्न बजाने पर भी उसने गाड़ी नहीं रोकी और अगर मैंने तुरंत कार दायीं तरफ नहीं काटी होती तो वो दोनों हेडलाइट फोड़ देता. मेरी तमाम कोशिश के बाद भी उसने गाड़ी को बायीं तरफ नुकसान पहुंचा ही दिया. गुस्सा बहुत आया, लेकिन विप्लव भाई के दर्द के बारे में सोच कर गुस्से को पी गया. पुलिसवाले को डरा धमका कर और एफआईआर दर्ज कराने की धमकी देकर मैं मेट्रो अस्पताल की ओर बढ़ गया.
अनुमान के मुताबिक मुझे मेट्रो अस्पताल पहुंचने में सवा घंटे से अधिक लग गये. तब तक एक्स रे के बाद विप्लव दा के हाथ पर कच्चा प्लास्टर लगा दिया गया था और उन्हें जनरल वार्ड में एक बिस्तर पर लेटा दिया गया. साथी विचित्र मणि वहां पहुंच चुके थे और मदद के लिए विप्लव दा के ऑफिस से भी कुछ सहयोगी आ गये थे. कोई नाइट शिफ्ट में रात भर जग कर काम करने के बाद पहुंचा था तो कोई मॉर्निंग शिफ्ट में दफ्तर जा रहा था और हादसे के बारे में सुन कर अस्पताल आ गया.
मैंने पहुंचने के बाद सभी को समझा बुझा कर अपने अपने काम पर भेजा. उसके बाद हम करीब तीन घंटे तक डॉक्टर का इंतजार करते रहे, लेकिन कोई भी डॉक्टर नहीं आया. वहां तैनात नर्स से पूछा तो उसने बड़ी बेरुखी से जवाब दिया कि वो कहीं व्यस्त हैं और आ जाएंगे. फिर एक घंटा और बीत गया, लेकिन डॉक्टर का अता-पता नहीं. आखिर हमने फैसला किया कि यहां इलाज नहीं कराना. जहां कर्मचारियों का रवैया दर्द घटाने की जगह बढ़ाने वाला हो वहां रुकना मुसीबत को दावत देना है.
इस फैसले के बाद हमने साथी रिपोर्टरों को संपर्क साधा. डेस्क पर बैठे शख्स की सबसे बड़ी मजबूरी यही है. ख़बरों को लेकर वो जिन रिपोर्टरों से दिन रात झगड़ा करता रहता है, उन्हें गरियाते रहता है, आड़े वक्त में वही रिपोर्टर सबसे पहले ध्यान आते हैं. मैं भी डेस्क का गुर्गा और विप्लव दा भी डेस्क के गुर्गे. हम दोनों के पास संपर्क के नाम पर एक दो अच्छे रिपोर्टर मित्र हैं, जिन्हें हम हर मुसीबत में याद कर लेते हैं. वो भी बिना किसी लाग-लपेट के हमारी मदद कर देते हैं. उन्हीं में एक साथी ने ऑर्थोपेडिक सर्जन डॉक्टर ए के सिंह से मिटिंग फिक्स कर दी.
डॉक्टर ए के सिंह ने हमें चार बजे आईआईटी के पास ऑर्थोनोवा अस्पताल में बुलाया. फिर हम लोगों ने मेट्रो अस्पताल से विप्लव भाई को डिस्चार्ज कराने की फॉर्मेलिटी पूरी की और ऑर्थोनोवा अस्पताल पहुंच गए. करीब साढ़े चार बजे डॉक्टर ए के सिंह भी पहुंच गए. उन्होंने एक्स रे देखा और कहा कि ऑपरेशन करना होगा. हड्डी के तीन टुकड़े हो गए हैं और प्लेट लगानी पड़ेगी. चौथे दिन यानी गुरुवार को अस्पताल में भर्ती होना होगा और शुक्रवार को वो ऑपरेशन करेंगे.
गुरुवार से पहले मेरे पास तीन दिन थे और मैंने अचानक अजमेर जाने का फ़ैसला कर लिया। शाम को साथी अभिषेक से भेंट हुई तो उसने भी वहां चलने की इच्छा जाहिर की. फिर क्या था एक दिन बाद मंगलवार की सुबह हम दोनों अजमेर के लिए चल पड़े.
(जारी है...)
तारीख – ७ जून, २००८ .... दिन – शनिवार .... समय – २१.५५ .... जगह – दिल्ली
Monday, June 2, 2008
एक शराबी की कसम
((छू कर गुजरी मौत के आगे का हिस्सा)) ....
मुंबई का अक्सा बीच. पश्चिमी मलाड के छोर पर मौजूद ये बीच बेहद हसीन है. एक तरफ दूर दूर तक रेत, दूसरी तरफ काले चट्टानों की घटती-बढ़ती लंबी कतार. उन चट्टानों पर बैठे समंदर को निहारते रहने पर वक़्त का अहसास ख़त्म हो जाता है. शाम के समय तो नज़र समंदर से हटती ही नहीं. लहरों में सूरज की लालिमा घुल जाती है. मानो धरती का सारा सोना पिघला कर समंदर में उड़ेल दिया गया हो. सूरज जितना समंदर में समाता है, नीला पानी उतना ही सुनहरा हो जाता है. उस सुनहरे पानी में सुर्ख लाल सूरज को डूबते देखने पर मस्तिक में सिवाए उस पल के कोई और विचार नहीं कौंधता. दिल और दिमाग में मची उथल-पुथल थम जाती है. सिर्फ और सिर्फ वही अदभुत नज़ारा ज़िंदा रहता है।
उन दिनों मुझे देर तक सोने की आदत थी. इसलिए किसी भी सुबह मैं अक्सा बीच पर नहीं पहुंच सका. लेकिन वहां मैंने न जाने कितनी शामें बिताई हैं. मैं और मेरा दोस्त भानु और कभी कभी उसके कुछ फिल्मी दोस्त. भानु और मैं कॉलेज के जमाने के दोस्त थे. १९९६ से. तब भानु जिस थियेटर ग्रुप में कई साल से जुड़ा था, वहां मैंने जाना शुरू किया था. साल भर बाद भी वो थियेटर से जुड़ा रहा और मैंने पत्रकारिता का दामन थाम लिया. फिर मैं नौकर बन गया और कभी कहीं तो कभी कहीं नौकरी करने लगा और वो अभिनय की दुनिया में पहचान बनाने के लिए मुंबई चला गया. भानु के बारे में कभी विस्तार से लिखूंगा. फिलहाल बात उस हसीन शाम की जिसमें ख़तरनाक नाटकीय मोड़ आना बाकी था।
ये बात जनवरी या फरवरी २००४ के किसी दिन की है. मौसम काफी सुहावना था. मैं और भानु उस दिन भी चिप्स, भुजिया, सिगरेट और बीयर की बोलतें लेकर दोपहर बाद अक्सा बीच पहुंच गए. समंदर का पानी काफी दूर था. हम लोग किनारे से करीब डेढ़ सौ मीटर दूर मौजूद चट्टान के बड़े टीले पर बैठ गए. तब उस ऐतिहासिक चट्टान के इर्द गिर्द हथेली भर पानी रहा होगा. भानु ने हर बार की तरह उस दिन भी कहा पार्टनर ये ऐतिहासिक चट्टान है... ये कई फिल्मों की शूटिंग देख चुका है... एक दिन ये मेरी फिल्म की शूटिंग भी देखेगा... फिर बीयर की बोतल खुली और कभी न ख़त्म होने वाले किस्से शुरू हो गये।
भानु कई साल पहले मुंबई चला आया था और फिल्मी दुनिया में अपनी हिस्सेदारी के लिए संघर्ष कर रहा था. इसलिए उसके पास किस्सों की कोई कमी नहीं थी. कौन निर्देशक कितना महान है? कौन से सितारे का किससे चक्कर चल रह रहा है? किस हीरो ने फीस के तौर पर किस हीरोइन की फरमाइश रखी? बॉलीवुड का गे और लेस्बियन क्लब? वगैरह वगैरह ... एक से बढ़ कर एक किस्से और उन्हें परोसने का बेहतरीन अंदाज. भानु के पास फिल्मी दुनिया के चटपटे किस्से तो मेरे पास मीडिया जगत के. दिल्ली और मुंबई दो महानगरों के पत्रकारों के किस्से।
उन्हीं किस्सों के बीच धीरे धीरे सूरज आसमान से उतर कर समंदर की लहरों में डूब गया. तब तक हम दोनों दो-दो बोतल बीयर डकार चुके थे और नशा हल्की लाल तरंगे बन कर आंखों में उतर गया था. सूरज के डूबने के साथ ही उजाले पर अंधेरा तेजी से हावी होने लगा. थोड़ी देर बाद हम दोनों ने घर लौटने का फ़ैसला किया. सामान समेट हम खड़े ही हुए थे कि भानु चिल्ला पड़ा – अरे बाप रे! ये क्या हो गया? हमें चारों तरफ से पानी ने घेर लिया था. सूरज को निगलता हुआ समंदर कब ऊपर चढ़ आया हमें पता ही नहीं चला. हम दोनों अब समंदर में करीब पचास-साठ मीटर अंदर एक ऊंचे टीले पर फंस गए थे. अनहोनी की आशंका से दिल कांप उठा और सारा नशा हवा हो गया।
हम दोनों ने चारों तरफ नज़रें घुमाईं. लेकिन किनारे पर चहल-पहल की जगह सन्नाटा पसरा था. लोग सुहानी शाम का लुत्फ उठा कर लौट चुके थे. किसी मदद की आस बेमानी थी. हम दोनों को ये अंदाजा भी हो चुका था कि अगर हमने तुरंत बाहर निकलने की कोशिश नहीं की तो बचने की गुंजाइश भी घटती जाएगी. तेजी से ऊपर उठता समंदर सूरज की तरह हमें भी लील लेगा. डरते हुए ही सही पानी की गहराई नापने के लिए मैंने टीले से नीचे उतरने का फैसला किया. भानु को अपना हाथ पकड़ाया और धीरे धीरे नीचे उतर गया. पानी मेरी छाती तक था. मैं बुरी तरह घबरा गया।
संसार में सुंदर दिखने वाली हर रचना भीतर से भी सुंदर हो ये जरूरी नहीं. अक्सा बीच की हक़ीक़त भी कुछ ऐसी ही है. मुंबई में उसे किलर बीच भी कहते हैं. अक्सा बीच की तरफ जैसे जैसे आप आगे बढ़ेंगे .. आपको सावधान करते हुए बोर्ड नज़र आएंगे. हर बोर्ड में प्रशासन की तरफ से पानी में नहीं उतरने की अपील की गई है. इस बीच पर जाती हुई लहर के साथ जमीन नीचे धंस जाती है और वहां खड़ा शख्स समंदर में समा जाता है. हर साल अक्सा बीच पर प्रशासन की चेतावनी को नज़रअंदाज करने वाले कई लोगों को लहरें उठा ले जाती हैं और पीछे छोड़ जाती हैं दर्द की ऐसी लकीरें जो मिटाए नहीं मिटतीं।
पानी में उतरने के बाद मैं हर वक्त उन्हीं हादसों के बारे में सोच रहा था. फिर मैंने भानु से कहा मेरा हाथ पकड़े हुए तुम थोड़ी दूर पर पानी में उतरो. हम एक के बाद कदम आगे बढ़ाएंगे ताकि अगर कोई जमीन में धंसा तो दूसरा उसे थामने की कोशिश कर सके. भानु पांच फुट छह इंच का है और मैं छह फुट का. भानु नीचे उतरा तो उसकी गर्दन तक पानी था. हम दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और फिर आसमान की तरफ.... जैसे भगवान से कह रहे हो कि आज जान बख्श दो... आगे बीयर को कभी हाथ नहीं लगाएंगे...
फिर हौसला जुटाकर एक एक कदम आगे बढ़ाते हुए धीरे धीरे किनारे की ओर चल पड़े... हर कदम पर जब रेत हल्की सी खिसकती तो डर बढ़ जाता. लेकिन हर कदम के साथ भरोसा भी बढ़ रहा था. तीन-चार मिनट के भीतर हम दोनों काफी आगे चले आए और अब घुटनों से नीचे तक ही पानी शेष था. फिर एक दो तीन गिन कर हम किनारे की तरफ दौड़ पड़े. दोनों काफी देर तक खुशी में चीखते चिल्लाते रहे ... ठहाका लगाते रहे...
लेकिन चंद मिनटों के भीतर मन के कई भाव बदल गए... पानी से घिरे होने पर बीयर पीने को लेकर पछतावा पैदा हुआ था ... समंदर से बाहर आने पर वो पछतावा मिट गया ... डर की जगह अब एक रोमांचक याद ने ले ली।
इस वाकये के बाद हमने राजकपूर की तरह एक कसम खाई .. आगे से जब भी अक्सा बीच आएंगे... किनारे पर रह कर ही डूबते सूरज का लुत्फ उठाएंगे... कमरे पर पहुंचने तक इसी कसम को बार बार दोहराते रहे और फिर फ्रिज से बीयर की एक–एक बोतल और निकाल कर जान बचने का जश्न मनाने लगे...
तारीख – ०२-०६-२००८
दिन – सोमवार
समय – ०२.१५
जगह – दिल्ली
Sunday, June 1, 2008
छू कर गुजरी मौत...
के बाद पढ़ा जाए
नशा कितना ख़तरनाक है इसे समझने के लिए पहले नशे के चरम मुकाम में नशेड़ी की हालत को समझना होगा। शराब को पचाने की ताकत हर किसी में अलग-अलग होती है। आमतौर पर चार पेग के बाद जिस्म पर दिमाग का नियंत्रण ख़त्म होने लगता है। कुछ साहसी लोग छह पेग तक पचा लेते हैं। लेकिन उसके बाद उन्हें भी दिक्कत होने लगती है। वैसे साहसी से साहसी शख्स भी रोज छह-सात पेग पीयेगा तो उसका शरीर उसे जल्दी ही धोखा दे देगा। जब शरीर पर दिमाग का नियत्रण खत्म होने लगता है तो सबसे पहले कदम लड़खड़ाते हैं। फिर जुबां और उसके बाद पलके बंद होने लगती हैं। फिर वो मुकाम आता है जब आप भले ही आंखे खोले रखें, लेकिन होश खो चुके होते हैं।
अक्सर ख़बर आती है कि तेज रफ्तार कार ने लोगों को रौंद दिया या फिर कोई तेज रफ्तार कार किसी नाले या नहर में गिर गई। ऐसे हादसे उसी हालत की देन हैं। तब एक झटके में ये शराब कई जिंदगियां तबाह कर देती है और जो बच जाते हादसे की खौफनाक यादें उनकी हमेशा पीछा करती हैं।
मैं खुशकिस्मत रहा कि मेरे साथ ऐसा कोई ख़तरनाक हादसा नहीं हुआ। हादसा हुआ और पैसे का नुकसान भी हुआ लेकिन जान का कोई नुकसान नहीं हुआ। शायद ऊपर वाला मेहरबान था। मुझे याद है कि पिछले साल जून का ही महीना था। फिल्म सिटी में हम दोस्तों ने कारोबार (कार में बार) किया और रात एक बजे तक पार्टी चलती रही। उसके बाद संदीप दा घर चले गए और मैं और अभि अपनी-अपनी गाड़ी में खाने के लिए दरियागंज निकल पड़े। मैंने गाड़ी पहले स्टार्ट की और आगे बढ़ गया। अभी इंडिया टीवी की इमारत से बायें की तरफ मुड़ा ही था कि मोबाइल बजने लगा। लखनऊ से आशीष ने फोन किया था। नशे में चूर पहले से था, फोन उठाने के चक्कर में कार पर से नियंत्रण गड़बड़ाया और पैर से ब्रेक की जगह एक्सलेटर दब गया। फिर जोरदार आवाज हुई और लगा कि नरक का टिकट कट गया। टिकट कट भी गया होता अगर सीट बेल्ट नहीं होती। स्टेयरिंग सीने को चूर करता और माथा शीशे में लगता फिर जीवन लीला खत्म। अगर बचते तो एक दर्द लिये। फिर मैं लड़खड़ाते हुए गाड़ी से उतरा, इस बीच पार्टनर अभि. की गाड़ी भी वहां पहुंच गई। हम दोनों ने कार का मुआयना किया। टक्कर जोरदार थी। गाड़ी स्टार्ट तो हो रही थी लेकिन उसे मोड़ने में काफी दिक्कत हो रही थी। गौर से देखा तो अगले पहिये में दरवाजा धंस गया था। किसी तरह उसे धकेल कर इंडिया टीवी के सामने पार्किंग में खड़ा किया और एक दोस्त का हवाला देकर गार्ड को गाड़ी का ध्यान रखने को कहा। और वहां से आगे बढ़ गए। खाने की इच्छा मर चुकी थीं। फिर अभि. ने मुझे घर ड्रॉप किया और वो जब तक वापस घर नहीं पहुंच गया मैं बेचैन रहा।
अगले दिन होश आने पर मैंने बार बार शराब छोड़ने की कसम खाई। लेकिन वो कसम अधूरी रह गई। शराब बदस्तूर जारी रही। बल्कि कुछ वाकयों पर उससे भी ज्यादा हो गई। रात के एक बजे तक शराब और उसके बाद दो-दो, तीन-तीन बजे तक कभी खाने के नाम पर तो कभी सिगरेट के नाम या फिर कभी और अधिक शराब पीने के नाम पर इधर उधर भागना। फिर अगले दिन वही पछतावा और शराब छोड़ने की वही पुरानी कसम। एक अजीब का जाल, जिसमें उलझ कर जिंदगी दम तोड़ रही थी।
((ये सिर्फ एक हादसा था। ऐसे कई हादसे और उनसे मिले सबक शेष हैं ... कुछ अपने ... कुछ दूसरों के।))
तारीख – ०१-०६-०८
समय – ००.४०