Saturday, June 7, 2008

आस्था का सफ़र

रविवार की सुबह आठ बजे विप्लव दा का फोन आया. उन्होंने बताया कि उनकी कार बस से टकरा गई है और दायां हाथ टूट कर लटक गया है. वो मेट्रो अस्पताल जा रहे हैं और मैं उनके घर से हेल्थ कार्ड लेकर वहीं पहुंच जाऊं. मैंने हामी भरी और बिना देरी किये साथी विचित्र मणि को फोन लगाया. ये सोच कर कि गोल मार्केट से राजघाट होते हुए नोएडा पहुंचने में मुझे कम से कम चालीस से पैंतालीस मिनट लग जाते. अगर ट्रैफिक जाम मिलता तो कम से कम सवा घंटा. तब तक कोई ना कोई विप्लव दा के पास रहना चाहिये. विचित्र मणि भी विप्लव दा को अच्छी तरह जानते हैं, उन्होंने जैसे ही हादसे की खबर सुनी, मेट्रो अस्पताल के लिए निकल पड़े.

इसके बाद मैं भी तुरंत तैयार हो कर घर से चल दिया. अभी गाड़ी में बैठा ही था कि विप्लव दा का फिर फोन आया. उन्होंने कहा जल्दीबाजी मत करना. कहते हैं दूध का जला छाछ भी फूंक कर पीता है. शायद विप्लव दा को लग रहा था कि हादसे की खबर सुन कर कहीं मैं गाड़ी हड़बड़ी में ना चलाने लगूं. मैंने उनसे इत्मिनान रखने को कहा और उनके घर की ओर चल पड़ा.

मैं पूरी तरह सजग होकर गाड़ी चला रहा था, लेकिन विप्लव दा की आशंका आशंका सच निकली. नोएडा में सेक्टर १९-२० की पुलिस चौकी के पास पुलिस के ट्रक ने मेरी गाड़ी को टक्कर मार दी. रेड लाइट पर ड्राइवर बिना पीछे देखे ट्रक बैक करने लगा. हॉर्न बजाने पर भी उसने गाड़ी नहीं रोकी और अगर मैंने तुरंत कार दायीं तरफ नहीं काटी होती तो वो दोनों हेडलाइट फोड़ देता. मेरी तमाम कोशिश के बाद भी उसने गाड़ी को बायीं तरफ नुकसान पहुंचा ही दिया. गुस्सा बहुत आया, लेकिन विप्लव भाई के दर्द के बारे में सोच कर गुस्से को पी गया. पुलिसवाले को डरा धमका कर और एफआईआर दर्ज कराने की धमकी देकर मैं मेट्रो अस्पताल की ओर बढ़ गया.

अनुमान के मुताबिक मुझे मेट्रो अस्पताल पहुंचने में सवा घंटे से अधिक लग गये. तब तक एक्स रे के बाद विप्लव दा के हाथ पर कच्चा प्लास्टर लगा दिया गया था और उन्हें जनरल वार्ड में एक बिस्तर पर लेटा दिया गया. साथी विचित्र मणि वहां पहुंच चुके थे और मदद के लिए विप्लव दा के ऑफिस से भी कुछ सहयोगी आ गये थे. कोई नाइट शिफ्ट में रात भर जग कर काम करने के बाद पहुंचा था तो कोई मॉर्निंग शिफ्ट में दफ्तर जा रहा था और हादसे के बारे में सुन कर अस्पताल आ गया.

मैंने पहुंचने के बाद सभी को समझा बुझा कर अपने अपने काम पर भेजा. उसके बाद हम करीब तीन घंटे तक डॉक्टर का इंतजार करते रहे, लेकिन कोई भी डॉक्टर नहीं आया. वहां तैनात नर्स से पूछा तो उसने बड़ी बेरुखी से जवाब दिया कि वो कहीं व्यस्त हैं और आ जाएंगे. फिर एक घंटा और बीत गया, लेकिन डॉक्टर का अता-पता नहीं. आखिर हमने फैसला किया कि यहां इलाज नहीं कराना. जहां कर्मचारियों का रवैया दर्द घटाने की जगह बढ़ाने वाला हो वहां रुकना मुसीबत को दावत देना है.

इस फैसले के बाद हमने साथी रिपोर्टरों को संपर्क साधा. डेस्क पर बैठे शख्स की सबसे बड़ी मजबूरी यही है. ख़बरों को लेकर वो जिन रिपोर्टरों से दिन रात झगड़ा करता रहता है, उन्हें गरियाते रहता है, आड़े वक्त में वही रिपोर्टर सबसे पहले ध्यान आते हैं. मैं भी डेस्क का गुर्गा और विप्लव दा भी डेस्क के गुर्गे. हम दोनों के पास संपर्क के नाम पर एक दो अच्छे रिपोर्टर मित्र हैं, जिन्हें हम हर मुसीबत में याद कर लेते हैं. वो भी बिना किसी लाग-लपेट के हमारी मदद कर देते हैं. उन्हीं में एक साथी ने ऑर्थोपेडिक सर्जन डॉक्टर ए के सिंह से मिटिंग फिक्स कर दी.

डॉक्टर ए के सिंह ने हमें चार बजे आईआईटी के पास ऑर्थोनोवा अस्पताल में बुलाया. फिर हम लोगों ने मेट्रो अस्पताल से विप्लव भाई को डिस्चार्ज कराने की फॉर्मेलिटी पूरी की और ऑर्थोनोवा अस्पताल पहुंच गए. करीब साढ़े चार बजे डॉक्टर ए के सिंह भी पहुंच गए. उन्होंने एक्स रे देखा और कहा कि ऑपरेशन करना होगा. हड्डी के तीन टुकड़े हो गए हैं और प्लेट लगानी पड़ेगी. चौथे दिन यानी गुरुवार को अस्पताल में भर्ती होना होगा और शुक्रवार को वो ऑपरेशन करेंगे.

गुरुवार से पहले मेरे पास तीन दिन थे और मैंने अचानक अजमेर जाने का फ़ैसला कर लिया। शाम को साथी अभिषेक से भेंट हुई तो उसने भी वहां चलने की इच्छा जाहिर की. फिर क्या था एक दिन बाद मंगलवार की सुबह हम दोनों अजमेर के लिए चल पड़े.

(जारी है...)

तारीख – ७ जून, २००८ .... दिन – शनिवार .... समय – २१.५५ .... जगह – दिल्ली

3 comments:

Udan Tashtari said...

इन्तजार कर रहे हैं आगे का. आशा है सब अच्छा ही हुआ होगा.

Rajesh Roshan said...

समरेन्द्र जी आपकी अब तक ३-४ पोस्ट को पढ़ चुका हू. एक बात कौमन है. दुर्घटना. हर पोस्ट में एक दुर्घटना का जिक्र... जरा ध्यान से.. ख्वाजा जी आपको बरकत दे

डॉ .अनुराग said...

padh rahe hai.....jaari rakhe aor dhyaan se gaadi chalaye.....