((आस्था के सफ़र... से आगे))
तय कार्यक्रम के मुताबिक मैं और अभिषेक सुबह पांच बजे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच गए। अजमेर शताब्दी ६।१० पर यहीं से खुलती है। लेकिन वहां टिकट काउंटर पर तैनात बाबू ने बताया कि गुर्जर आंदोलन के कारण ट्रेन रद्द है। गुर्जरों ने रेल की पटरियां उखाड़ दी हैं और महिलाएं ट्रैक पर बैठी हैं। जब तक हालात काबू में नहीं आते और पटरियों की मरम्मत नहीं हो जाती, ट्रेन नहीं चलेगी. मतलब साफ था या तो हम अपना कार्यक्रम कुछ दिनों के लिए टालें या फिर कोई और रास्ता पकड़ें. हमने दूसरा रास्ता पकड़ने का फैसला किया और बीकानेर हाउस की तरफ बढ़ गए.
बीकानेर हाउस पहुंचने पर पता चला कि अजमेर के लिए सीधी बस दोपहर में है। जबकि जयपुर के लिए बस अगले पांच मिनट में खुलेगी. सीट भी खाली है. हमने तुरंत टिकट कटाया और बस में सवार हो गए. हालांकि पूरे रास्ते ये डर बना रहा कि कहीं आंदोलन कर रहे गुर्जर हाइवे जाम ना कर दें. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. हम करीब साढ़े बारह बजे जयपुर और वहां से साढ़े तीन बजे अजमेर पहुंच गए. दोपहर तीन से चार बजे तक दरगाह की साफ-सफाई होती है और दरवाजे बंद रहते हैं. इसलिए हमारे पास आधे घंटे का वक्त था. भूख लग रही थी और मौके का फायदा उठा कर हम एक रेस्तरां में पेट पूजा के लिए बैठ गए.
ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के जन्म को लेकर कोई पुख़्ता जानकारी नहीं है। कुछ जानकारों के मुताबिक उनका जन्म बारहवीं शताब्दी में ईरान के सिजिस्तान में हुआ तो कुछ के मुताबिक वो इस्फहां में जन्मे. कुछ ऐसे भी हैं जो दावा करते हैं कि ख़्वाजा का घर कांधार में था. जन्म की जगह को लेकर विवाद भले हो, लेकिन ज्यादातर इतिहासकार एक बात पर सहमत हैं. ख़्वाजा का बचपन से ही धर्म कर्म में झुकाव था. उनका व्यक्तित्व करिश्माई था. एक दिन शेख इब्राहिम कंदोजी उनके घर पहुंचे. उस समय ख़्वाजा पौधों को पानी पटा रहे थे. कंदोजी ने ख़्वाजा के मन के भीतर झांक कर देखा तो उनकी आंखें चमक उठीं. शेख इब्राहिम ने ख़्वाजा के करिश्माई व्यक्तित्व को भांप लिया. कंदोजी के ही प्रभाव में ख़्वाजा ने घर बार बेच दिया और उससे मिले पैसे को दान में दे दिया। उसके बाद वो दुनिया की सैर पर निकल पड़े। मस्ती वाले सैर नहीं, बल्कि इन्सांपरस्ती के सैर पर. वो दिल्ली होते हुए अजमेर पहुंचे और वहीं बस गए. अजमेर में ही उन्होंने भारत में सूफी की चिश्ती परंपरा की नींव रखी. बताया जाता है कि ख़्वाजा ने ९६ साल की उम्र में १२३६ के करीब अपना दैहिक चोला उतार फेंका. और आत्मा...वो पाक रूह तो आज भी लोगों को अपने पास खींच लाती है और जो जा नहीं पाते, वो भी अपने अंतस में उसे महसूस करते हैं.
इतिहासकारों की माने तो ख़्वाजा के ज़िंदा रहते उनकी शख्सियत के बारे में बहुत कम लोगों को ही पता था। लेकिन उनके जाने के बाद चर्चा होने लगी. उनका करिश्मा दूर दूर तक फैलने लगा. किस्से सुनाए जाने लगे और फकीर से लेकर शहंशाह तक उनके दर पर पहुंचने लगे. १६वीं शताब्दी में हिंदुस्तान के शहंशाह अकबर उनके सबसे बड़े भक्तों में से एक थे. उन्होंने कई बार अजमेर तक पैदल यात्रा की. हर बड़ी जीत के बाद अकबर ख़्वाजा के दरबार में हाजिरी बजाते थे. उन्हीं के शासन काल में अजमेर सबसे बड़े सूफी संत की दरगाह के तौर पर स्थापित हुआ. तब से यही मान्यता है कि जो कोई सच्चे मन से ख़्वाजा के दरबार में पहुंचता है उसकी मन्नत पूरी होती है.
सूफी कहानी तो हरी अनंत हरी कथा अनंता की तरह अनंत है और हम भी उस कहानी की हकीकत वाले दरबार में पहुंच चुके थे। शाम के चार बज चुके थे और गरीब नवाज का दर भी खुल चुका था। हल्की पेट पूजा के बाद हम भी जियारत के लिए तैयार थे. हमारे कदम दरगाह की तरफ बढ़ गए. वहां पहुंचने पर बहुत कुछ बदला-बदला सा दिखा. धमाकों के बाद सुरक्षा बढ़ा दी गई है. पूजा के सामान के अलावा कुछ भी ले जाना मुमकिन नहीं. अब आप कैमरा भीतर नहीं ले जा सकते हैं. सादी वर्दी में पुलिस के जवान दरगाह में तैनात हैं. वो हर आने-जाने वाले पर नज़र रखते हैं. मुझे अच्छी तरह याद है कि पिछली बार ऐसा कुछ नहीं था. गरीब नवाज के दरबार में मैं और अमिय मोहन बेधड़क दाखिल हुए थे. किसी भक्त पर कोई पाबंदी नहीं थी. लेकिन आतंकियों के हमलों ने काफी कुछ बदल दिया है. इन बदलावों पर गौर करते हुए हम अपनी मंजिल तक पहुंच गए. अब हमारे सामने ख़्वाजा थे और हमारी ही तरह उनके ढेरों भक्त.
दिल्ली से अजमेर के रास्ते में मैं मुरादों की फेहरिस्त तैयार करते गया था. अपने लिये और दोस्तों के लिए भी. उन मुरादों को लिखने बैठता तो एकाध पन्ने भर जाते. लेकिन ख़्वाजा की दरगाह में कदम रखते ही सभी इच्छाएं जेहन से एक के बाद एक गायब होने लगीं. दिमाग पर मेरा नियंत्रण खत्म होने लगा. ऐसा लगा कि सबकुछ पहले से निर्धारित प्रक्रिया के तहत हो रहा है. पिछली बार भी यही हुआ था. मैं काफी कुछ मांगने के इरादे से वहां पहुंचा था, लेकिन जब खादिम ने पवित्र चादर मेरे सिर पर रखी और ख़्वाजा से मेरी मुरादें पूरी करने की गुजारिश तो मैं खामोश रह गया. यही नहीं, मुझे अच्छी तरह याद है कि दरगाह में दाखिल होते वक्त मैं गायत्री मंत्र बुदबुदा रहा था. धर्म कर्म के नाम पर बस यही एक मंत्र मुझे याद है. मंदिर हो, गुरद्वारा हो या फिर दरगाह, मैं हर जगह हाथ जोड़ कर यही मंत्र बुदबुदाने लगता हूं. सामने से जब कोई एंबुलेंस सायरन बजाते हुए गुजरता है तो भी यही मंत्र पढ़ने लगता हूं और उसके बाद दिल से यही दुआ निकलती है कि भगवान उस बंदे का ख्याल रखना. ख़्वाजा के दरबार में इस बार भी वही हुआ... मुझे काफी कुछ मांगना था, लेकिन आखिर में यही मांग सका कि गरीब नवाज, अपने बंदों का ख्याल रखना.
(जारी है...)
तारीख – 8 जून, २००८
समय – 11.30
(दिल्ली)
Sunday, June 8, 2008
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4 comments:
hamesha yahi dua mangenge to aapko bin maange sab kuch mil jayega..par aapko padhkar maja aaya...likhte rahe...
बिन मांगे सब मिला, मांगे मिला न कुछ.... ये जारी रखना अच्छा नही है... फ़िर भी अच्छा लगा
नियाजे -इश्क की ऐसी भी एक मंजिल है ।
जहाँ है शुक्र शिकायत किसी को क्या मालूम । ।
बहुत अच्छा लेखन है आपका. बांधता है. बधाई. दुआ तो मांगते ही रहिये जनाब. हर सांस के लिए जरुरी है. बाकी तो जो होना है बिना मांगे ही हो जायेगा पर तब भी मर्जी उसकी ही होगी.
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