इंडिया गेट। दिल्ली की जान। भारत की शान। राजधानी आने वाला कोई भी शख्स इंडिया गेट घूमे बगैर ये नहीं कह सकता कि उसने दिल्ली देख ली है। हर शाम इसी इंडिया गेट पर मेला लगता है। बच्चे, जवान, अधेड़ और बुजुर्ग .... हर उम्र के लोग यहां नज़र आएंगे। हज़ारों की संख्या में। राष्ट्रपति भवन से लेकर नेशनल स्टेडियम तक भीड़ ही भीड़। हंसती, मुस्कराती, उछल-कूद मचाती भीड़। कहीं कोई परिवार चटाई पर बैठकर भोजन का लुत्फ उठाता नज़र आएगा तो कहीं कोई भेल-पूरी बनवाता नज़र आएगा।
आज शाम मैं भी वहां गया। पूरे परिवार के साथ। गांव से छह- सात बच्चे आए हुए हैं। वो भी साथ में इंडिया गेट गए। हम सभी यही कोई ढाई घंटा वहां रहे। ये ढाई घंटे बड़ी जल्दी निकल गए। आज मैंने बच्चों को बायोस्कोप दिखाया। मैंने उनसे पूछा कि कभी तुमने बायोस्कोप देखा है क्या? उन्होंने बताया नहीं। बताइये गांव से आए हैं, लेकिन बायोस्कोप कभी नहीं देखा। ये भी कोई बात है। मैंने उनसे कहा इंडिया गेट पर बायोस्कोप देखो। ये हमेशा याद रहेगा। कभी कोई पूछेगा कि बायोस्कोप देखा है तो कहना इंडिया गेट पर देखा है। हमने वहां भेल-पूरी का लुत्फ उठाया और आइस्क्रीम का भी। हालांकि यहां की भेल-पूरी में मंबुई के जुहू बीच वाला चटपटापन नहीं था। लेकिन काफी दिनों बाद भेलपूरी खाने पर मजा आ गया।
शाम में इंडिया गेट मैं कई बार जा चुका हूं। हमारा आठ दोस्तों का ग्रुप था। मैं, अरविंद, राजेश कपूर, दीपांकर, सुधीर शर्मा, सुधीर कुमार, मनीष गोगिया और विकास चावला। हम आठ दोस्तों के अलावा एक मेरा बचपन का मित्र नरेंद्र दानिया भी हमारे साथ होता। कुल नौ लोगों की टोली इंडिया गेट जाती। कार्यक्रम तभी बनता जब किसी का घर खाली हो। इंडिया गेट में शाम बिताने के बाद उसी खाली घर को आबाद करने चले जाते। फिर खूब धमा-चौकड़ी मचाते। भोर तक पार्टी चलती रहती। आज इंडिया गेट जाने पर चंद पलों के लिए वो सभी यादें ताजा हो गईं।
तब और अब के बीच काफी अंतर आ गया है। यहां पहले की तुलना में कुछ ज्यादा लोग जुटने लगे हैं। जुटें भी क्यों नहीं? देश के राजधानी दिल्ली में ऐसी शायद ही कोई खुली जगह है जहां आप बिना किसी झिझक और डर के रात ग्यारह-बारह बजे तक परिवार के साथ रह सकें। वर्ना तो हसीन शाम बिताने के नाम पर यहां सिर्फ यही हो सकता है कि आप किसी सिनेमा या नाटक का टिकट बुक कर लें और उसके बाद किसी बड़े रेस्तरां में खाना खा लें। इंडिया गेट के अलावा कहीं और ज्यादा रात तक खुले में घूमने पर हमेशा खटका लगा रहता है कि मनचलो की कोई टोली आपको तनाव देते हुए गुजर जाएगी।
सुरक्षा के अहसास के मामले में देश की राजधानी दूसरे महानगरों की तुलना में बहुत गरीब है। मुंबई में तो मैं दो साल रहा हूं। मैंने देखा है कि वहां एक साधारण कमाई वाले घर के लोग भी दिल्ली की तुलना में ज्यादा अच्छी जिंदगी जीते हैं। वहां आज भी मीरा रोड और भइंदर में कम किराए पर मकान मिल जाएंगे। फिर शाम को दफ्तर से लौटने के बाद जुहू बीच, बांद्रा, वर्ली सी फेस और मरीन ड्राइव ... ऐसी ढेरों जगहें जहां आप बीवी, बच्चों के साथ जा सकते हैं। रेत पर बच्चों को खेलते, घरौंदा बनाते, कूदते-फांदते देख सकते हैं। इन सभी जगहों पर आधी रात तक रौनक बनी रहती है। यहां गाड़ी वाले भी जाते हैं और बिना गाड़ी वाले भी। जिनके पास कार नहीं है वो लोकल में बैठ कर जाते हैं और साल में इक्का-दुक्का घटनाओं को छोड़ दीजिये तो कोई वारदात नहीं होती।
अरे मैं भी कहां भटक गया। दिल्ली और मुंबई के बीच क्या अंतर है इस पर मैं कभी और विस्तार से लिखूंगा। फिलहाल तो यही कहना है कि अगर आप दिल्ली में रहते हैं तो किसी शाम इंडिया गेट जरूर जाइये। अगर दिल्ली आते हैं तो एक शाम इंडिया गेट पर बिताने के इरादे के साथ आइयेगा। नंवबर से फरवरी के बीच की कड़ाके के सर्दी को छोड़ दे तो यहां की रौनक भी देखने लायक होती है।
तारीख - १५ जून, २००८
वक़्त - २३.५०
जगह - दिल्ली
Sunday, June 15, 2008
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1 comment:
आपने भी कहाँ इंडिया गेट की याद दिला दी। पिछले साल गए थे पर इतनी ज्यादा भीड़ देख कर लग रहा था जैसे सारा दिल्ली ही वहां आ गया हो।
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