ये बरसात भी यूं ही निकल जाएगी। इस बरसात भी गांव जाना नहीं हो सकेगा। मन तो काफी चाहता है लेकिन गांव जाने की भूमिका तैयार नहीं हो रही। मतलब इस बरसात भी मैं झिझरी नहीं खेल सकूंगा। गांव से सटी मगई नदी के किनारे नहीं बैठ सकूंगा। बारिश में कुछ चिकनी और मुलायम हुई परती की रेत पर चीका नहीं खेल सकूंगा। वो रेत जो कूदने पर भुरभुरा जाती, बिखर जाती मगर हमें चोट नहीं लगने देती। ये बरसात भी बीते कई साल की तरह यादों के सहारे काटनी होंगी। रोजी रोटी के नाम पर इस बरसात को भी खर्च करना होगा।
मुझे याद है कि बरसात में मगई नदी में उल्टी धारा बहने लगती थी। ये नदी एक छोर पर गंगा में जाकर मिल जाती थी। लेकिन जब गंगा में पानी कुछ ज्यादा उफान मारने लगता था तो मगई में धारा पलट जाती। फिर पानी हमारे गांव को चारों ओर से घेर लेता। कोई पंद्रह-बीस फुट ऊंचाई पर बसे गांव के चारों तरफ आधे किलोमीटर दूर तक पानी ही पानी दिखाई देता। परती के बाद बगीचे भी पानी में डूब जाते... लगता कि आम, सेमर, सिरफल, कटहल, बरगद, पाकड़ और पीपल सभी पानी पर उगे हों। उन्हीं पेड़ों के बीच मछलियां अपनी खुराक तलाशती और मछलियों के तौर पर इंसान अपनी खुराक। हम लोग भी बंटी (मछली पकड़ने का कांटा) लेकर अपने दुआर के छोर से मछली पकड़ने लगते। घंटों केचुआं कांटे में डाल कर बैठे रहते। किस्मत के हिसाब से रोहू, मांगुर, नैनी, कतला, झींगा ... उन काटों में फंस जातीं। प्रकृति बाढ़ के तौर पर अपनी ताकत के इजहार के साथ ज़िंदगी की नई धारा की रचना भी कर जाती थी। हम सभी उस जीवन धारा का भी लुत्फ उठाते। उससे जुड़ी मुश्किलों से दो-दो हाथ करते हुए।
गंगा का पानी हमें करीब एक से डेढ़ महीने तक इसी तरह घेरे रहता था। पानी घटने के इंतजार में हाथ पर हाथ धर कर बैठा तो रहा नहीं जा सकता। इसलिए लोगों ने बाढ़ के साथ कई तरह के एड्जस्टमेंट किये थे। खुद को पूरी तरह ढाल लिया था। हंसने खेलने के कई नए तरीके ईजाद किये थे। वैसे तो ये तरीके सदियों पुराने थे, लेकिन उनमें वक्त के साथ बदलाव भी हुआ था। ऐसा ही एक खेल था झिझरी। झिझरी की याद आते ही मैं रोमांचित हो उठता हूं। वो खेल ही कुछ ऐसा है, मानों एक बड़े क्रूज पर सवार होकर समंदर के बीच उतरना। क्रूज की ऊंची छत पर सवार होकर आसमान में तारे गिनने जैसा।
आमतौर पर झिझरी अंजोरिया रात में खेलते हैं। ज़्यादातर लोग अंजोरिया रात नहीं समझ सकेंगे। इसे हिंदी में पूर्णिमा और अंग्रेजी में फुल मून नाइट कहते हैं। तब चांद अपने पूरे शबाब पर होता है। अंजोरिया रात में बाढ़ के पानी में चांद कुछ इस तरह अपनी रोशनी घोल देता मानो वो भी आसमान से उतरकर नदी जल से अठखेलियां करना चाहता हो और ये चाहता हो कि संसार उसकी खूबसूरती को पानी में निहार ले। ऐसे की नज़रें ठहर जाती हैं। उसी अंजोरिया रात में नाव पर चौकी रख दी जाती। टॉर्च, लालटेन, ढोल, मझीरे लेकर लोग सवार हो जाते। भगवान राम से प्रार्थना करते हुए, अपनी सलामती की दुआ मांगते हुए।
सिकिया चीरय चिरी
नैया सीरी जवलों
राम सागरवा बांध ना
कवना घाट उतरे हो परदेसिया
राम सागरवा बांध ना
((भगवान इस नाव की हिफाजत करना। लकड़ी को चीर चीर कर बनाई गई ये नाव सागर में चली जा रही है। इस पर सवार परदेसी को किसी घाट पर उतरना है))
...... सुरों में ही इसका जवाब भी दिया जाता
सिकिया चीरय चिरी
नैया सीरी जवलों
राम सागरवा बांध ना
राम घाट उतरे हो परदेसिया
राम सागरवा बांध ना
((भगवान इस नाव की हिफाजत करना। लकड़ी को चीर चीर कर बनाई गई ये नाव सागर में चली जा रही है। इस पर सवार परदेसी राम घाट पर उतरेगा।))
हो सकता हो कि सुरों से सजे उस सवाल जवाब का मतलब मैं ठीक से नहीं समझा सका हूं। लेकिन उसी प्रार्थना के साथ लोग नाव को लहरों में ढकेल देते और जश्न शुरू हो जाता। बीच धारा में ले जाकर नाविक लंगर डालते और नाव लहरों पर झूलने लगती ... ढोल, मझीरे से निकले सुर लहरों में घुलने लगते ... रामायण की चौपाइयां गायी जाने लगती... बीच बीच में जोरदार आवाज़ होती... बोलो सियापति रामचंद्र जी की जै ... एक नई तरंग पैदा होती जो नाव पर होते हुए भी सबको भीगो कर चली जाती ... तन सूखा मगर मन प्रेम और भक्ति रस में डूबा हुआ। हर कोने में चौकी पर नाचते-झूमते लोग और अलग-अलग सुर ... वो संगीत और नाच आज भी जेहन में ताजा है। उसके बारे में लिखते हुए चेहरे पर मुस्कान खिल आई है। मैं अपने बचपन में लौट चुका हूं और कुछ पल के लिए ही सही, उसे जीना चाहता हूं।
तारीख - २२ जून, २००८
दिन - रविवार, वक़्त - १६.१०, जगह - दिल्ली
6 comments:
Memories never dies. Njoy with ur nice memories. :)
कितना सुंदर चित्र खींचा है आपने बरसात का। मैंने कभी बरसात में गंगा या किसी और नदी को क़रीब से देखा नहीं, न ही इस तरह की कोई याद है, लेकिन इसे पढ़कर किसी एक गांव की बरसात देखने का दिल हो आया।
barsat ka sundar vivaran ke liye badhai.
सुंदर यादे हैं इन्हे यूँ ही संजोये रखे और लिखते रहे
अक्सर ही ऐसे ही बचपन की यादों में खो जाना कितना अच्छा लगता है. बहुत सुन्दर गोता लगाया है आपने यादों के समंदर में.
लिखते रहिये, सुनाते रहिये.
आज लग रहा है हमारे गांव में बाढ़ क्यों न आई?
अच्छा लिखा है गुरु
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